अपने देश में शादी को पवित्र रिश्ता
माना जाता है। कानून शादी के लिए पैसे के लेनदेन की मनाही करता है। लेकिन
इसी देश में एक ऐसी जगह भी है जहां शादी के लिए लड़कियों की मंडी लगाई जाती
है। बालिग और नाबालिग लड़कियों की बाकायदा बोली लगा कर रिश्ता तय किया
जाता है। आईबीएन7 की टीम इस बाजार की सच्चाई की पड़ताल करने पहुंची तो ये
देखकर सन्न रह गई कि लड़कियों की बोली लगाने वाले गैर नहीं हैं। पिता और
भाई ही लगा देते हैं घर की बेटी की कीमत।
मर्दों
की इस महफिल में बाजार सजा है। बोली लग रही है। यकीन करना मुश्किल है कि
ये बाजार बेटियों का है। यहां बेटियों का सौदा हो रहा है। वो भी
खुलेआम-मेला लगा कर। प्रशासन की नाक के नीचे। ये बाजार देश की आर्थिक
राजधानी मुंबई से महज 650 किलोमीटर दूर नांदेड़ में लगा है। शहर से 13
किलोमीटर दूर अर्धापुर गांव में। इस मेले में परंपरा के नाम पर पिता
बेटियों की बोली लगा देता है और भाई बहन की।
दकियानूसी
परंपरा की जंजीर से बंधे ये लोग बेटियों की नीलामी को गलत नहीं मानते। ये
परंपरा है वैधु समाज की। यहां शादियां तय करने का यही तरीका है। बाकायदा
पंचों की देखरेख में शादी तय करने के लिए बेटियों की बोली लगाई जाती है।
लड़की का पिता खुद मेले में पहुंच कर बेटी की नीलामी शुरू करता है। लड़कों
के पिता या रिश्तेदार बाजार तक पहुंच जाने वाली लड़कियों को खरीदने की होड़
में उतर पड़ते हैं, खुद घर की बहू के लिए बोली लगाते हैं। पंच लड़की को
सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले के हवाले करने का फैसला सुना देते हैं। जीती
जागती लड़की के लिए इस सौदे का बाकायदा कागजी करार भी होता है।
हैरत
की बात ये है कि ये सौदे की शादी कुछ ही दिनों के लिए होती है। पति जितना
वक्त चाहेगा, जब तक उसका मन करेगा, जब तक खुले बाजार में खरीदी गई अपनी
बीवी से उसका मन नहीं भरता तब तक वो उसे सौदे में रखेगा और उसके बाद वो एक
बार फिर उसी मंडी में पहुंचा दी जाएगी। शादी की मियाद खत्म तो शादी खत्म और
फिर लगाई जाती है उसी बहू की बोली। हालांकि दूसरी बार कीमत पहले से ज्यादा
हो जाती है। वैधु समाज की परंपरा के मुताबिक पहली बार शादी की मंडी में
पहुंची लड़की की बोली आमतौर पर 20 से 30 हजार रुपए लगती है। पहली शादी से
मां बन चुकी लड़की की बोली 50 हजार से 1 लाख रुपये तक तय की जाती है। यही
कीमत पहली शादी के 1 साल पूरे कर चुकी लड़की की भी होती है। और अगर शादी
जीवन भर के लिए हो तो बोली हैसियत के मुताबिक 1 लाख रुपये या उससे भी
ज्यादा की होती है।
नांदेड़
के अर्धापुर गांव में दुल्हनें खुलेआम बेचीं और खरीदीं जाती हैं, परंपरा
के नाम पर उन्हें किसी सामान की तरह दोबारा, तिबारा खरीदा बेचा जाता है और
आधुनिक भारत में ऐसी दकियानूसी और महिला विरोधी परंपरा से प्रशासन बेखबर
है। ये थी यहां दुल्हन बिकती है की एक शक्ल, इस परंपरा के नाम पर ऐसी कई
शक्लें आगे नजर आएंगी, कुछ शक्लें डराती हैं तो कुछ 21वीं सदी के भारत पर
सवाल खड़े करती हैं। शासन प्रशासन इस कुरीति के खिलाफ कार्रवाई का भरोसा दे
रहा है, लेकिन हकीकत ये भी है कि खुद वैधु समाज में इस परंपरा के विरोध
में उठने वाली आवाजों को सख्ती से दबा देने की परंपरा भी रही है।
समाज
लोगों की सहूलियत के लिए परंपरा बनाता है। लेकिन जब लोग लकीर के फकीर बन
जाते हैं तो परंपरा को कुरीतियों का दीमक भी लग जाता है। ऐसा ही हो रहा
शादी के लिए बेटियों की नीलामी की वैधु समाज की परंपरा में, जहां बालिग और
नाबालिग बेटियों की शादी के लिए बोली लगाने की कुप्रथा मुनाफा कमाने के
कारोबार में बदलती जा रही है।
सहूलियत
के मुताबिक परंपरा बनाता है। लेकिन जब लोग लकीर का फकीर बन जाते हैं तो
परंपरा को कुरीतियों का दीमक भी लग जाता है। ऐसा ही हो रहा शादी के लिए
बेटियों की बोली लगाने की वैधु समाज की परंपरा में, जहां बेटियों की शादी
के लिए बोली लगाने की परंपरा मुनाफे कमाने के कारोबार में बदलती जा रही है।
वैधु समाज की बेटियों ने भी जैसे दुल्हन के इस बाजार में उतरने और बार-बार
बिकने को अपनी नियति मान लिया है। वो मान बैठी हैं कि उनके समाज में जैसा
उनके पिता चाहेंगे वैसा ही होगा, शायद उसी को सही मानती हैं वे, उनकी
दुनिया, जिंदगी और सपने इसी खरीद फरोख्त तक सिमट कर रह गए हैं। पिता का
सही-गलत हर हुक्म मानने पर वो मजबूर हैं।
साफ
है परंपरा जैसे लहू की तरह इनकी नसों में दौड़ रही है। इसीलिए बेटी को
बेचने वाला पिता हो, या बाजार में बिकने को मजबूर बेटी हो। सभी इसी परंपरा
की दुहाई देते नहीं थकते। हकीकत ये भी है कि परंपरा को इस कदर तोड़ा-मरोड़ा
जा चुका है कि बेटियों की मंडी मुनाफा कमाने का कारोबार बनती जा रही है।
अक्सर लड़कियों की बोली से जो पैसे मिलते हैं पिता उससे अपने बेटों के लिए
बहू खरीदते हैं। घर में 1 लड़की और 2 या 3 लड़के हों तो सभी भाइयों की शादी
के लिए बेटी की कई-कई बार शादी करने की परंपरा भी है। वैधु समाज में शादी
तय वक्त के लिए ही होती है। शादी को बीच में तोड़ने की भी आजादी है।
लिहाजा, शादी को किसी भी बहाने तोड़ कर बेटी को फिर मंडी में पहुंचा दिया
जाता है। बेटियों के इस कारोबार को समाज के पंचों की सहमति है, लिहाजा बेटी
के विरोध या उसके दर्द की सुनवाई की गुंजाइश तक नहीं बचती।
पंचों
का कहना है कि उनके लिए कोई कानून नहीं है। लेकिन वैधु समाज में पंच खुद
को कानून से कम नहीं मानते। यही वजह है कि कोई भी बेटियों को खरीदने-बेचने
की इस परंपरा को तोड़ कर शादी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।
वैधु
समाज की परंपरा शादी के लिए पैसों के लेनदेन को गैरकानूनी ठहराने वाले
कानून के खिलाफ है। यहां नाबालिग लड़कियों की बोली भी लगती है। फिर भी वैधु
समाज अपने रीति रिवाज को सही ठहराता है। ऐसे में बेटियों को मंडी में
बिकने वाली चीज बनने से कौन बचाएगा? आईबीएन7 की पड़ताल में इस सवाल का कोई
आसान जवाब नहीं मिला, लेकिन ये भी सच है कि अब इसका विरोध शुरू हो गया है।
जहां
बोली लगती है वहां मोलभाव भी होता है और तकरार भी। जब पिता बेटियों की
बोली लगाते हैं तो कई बार मोल-भाव पर मसला यहां भी फंस जाता है। बेटियां
खरीदने-बेचने वाली चीज बन कर रह जाती हैं। कुछ वक्त पहले तक वैधु समाज में
बेटियों के ऐसे सौदों पर कोई ऐतराज नहीं होता था। लेकिन आधुनिक शिक्षा
हासिल करने वाले समाच के नौजवान अब इस परंपरा को भुला देना चाहते हैं।
बहुत
से नौजवान न चाहते हुए भी पंचायत के तुगलकी फरमान के आगे लाचार हैं।
हालांकि उम्मीद का एक रौशनदान वो लोग खोल रहे हैं जो वैधु समाज से नहीं
हैं, लेकिन महिलाओं के सम्मान को लेकर जागरुक हैं। वो बेटियों के खिलौना बन
जाने के खिलाफ हैं और ऐसी परंपराओं के खिलाफ उन्होंने मुहिम छेड़ दी है।
करीब
30 साल पहले शुरू हुई इस परंपरा की नींव महाराष्ट्र के नांदेड़ इलाके में
पड़ी थी। ज्यादातर समाजशास्त्रियों की नजर में इसकी वजह आर्थिक तंगी थी,
परिवार में बेटियां, उनकी शादी का खर्चा न जुट पाने की सूरत में ये दुल्हन
बाजार सजने लगा। बेटियों के बदले पैसे आने लगे और उन पैसों से बेटों की
बहुएं खरीदी जाने लगीं। ये दुष्चक्र चल पड़ा। पूरे राज्य में करीब ढाई लाख
वैधु समाज के लोग बसते हैं और ये सारे लोग अपने परिवार की बेटियों की बोली
लगाने साल में तीन बार लगने वाले इस मेले में शिरकत करने इस गांव में आते
हैं। वो गांव जिसकी आबादी करीब पंद्रह हजार है। गाहे-बगाहे उठने वाली विरोध
की आवाजें वैधु समाज में ही दबा दी जाती हैं। आरोप है कि उनकी पंचायत के
दबाव में विरोधियों के घर की बेटियों की समाज में शादी नहीं हो पाती। उनके
साथ वैधु समाज के दबंग मारपीट से भी नहीं चूकते। विरोधी परिवारों का हुक्का
पानी बंद कर दिया जाता है। उन्हें समाज से बेदखल कर दिया जाता है।
जाहिर
है, वैधु समाज की पंचायत ही इस परंपरा को बदलने की राह में सबसे बड़ा
रोड़ा है। पंचायतों को लगता है कि पुराने रीति-रिवाज का सख्ती से पालन कर
वो सही कर रहे हैं। लेकिन सवाल ये है कि आखिर इस महिला विरोधी परंपरा के
पीछे गरीबी और अशिक्षा के तर्क कब तक ठहर सकेंगे। आखिर कब तक इस इलाके में
बेटियों को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझा जाता रहेगा। सच तो ये भी है
कि सरकारी महकमों की निष्क्रियता भी इन पंचायतों को ऐसी परंपराएं आगे
बढ़ाने के लिए निरंकुश बना रही हैं। क्या वोटबैंक की सियासत के चलते ही
सरकारी मुलाजिम इस परंपरा को रोक नहीं पा रहे हैं। इस इलाके के विधायक हैं
खुद कांग्रेस के धुरंधर अशोक चव्हाण।
आजादी
के छह दशक बीत चुके हैं, लेकिन आज भी महाराष्ट्र के इस इलाके में दुल्हनों
की मंडी लगती है, दुल्हनें खुलेआम बेची खरीदी जाती हैं। आखिर कब तक चलेगी
औरतों की ये शर्मनाक नीलामी। कब औरतों को मोम की गुड़िया नहीं बल्कि जीती
जागती इंसान समझा जाएगा जिसकी जिंदगी पर खुद उसका अख्तियार है।
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