Tuesday, May 21, 2013

नक्सलियों में पड़ी फूट, ये है पहली मुठभेड़ की कहानी

झारखंड में पहली बार माओवादियों को सुरक्षाबलों के बजाए एक ऐसे नक्सल गुट से चुनौती मिल रही है जो उन्हीं से टूट कर बना है। तृतीय सम्मेलन प्रस्तुति कमेटी नाम के इस गुट ने बीते मार्च में सीपीआई-माओवादी के लोगों पर घात लगा कर हमला किया और 10 माओवादी मार गिराए। इसके बाद से ही राज्य में माओवादियों और टीएसपीसी में बड़े खूनी संघर्ष की आशंका है। आईबीएन7 ने इसी मामले की पड़ताल की जिसके बाद टेलीविजन पर पहली बार सामने आया रेडजोन का कुरुक्षेत्र।
आईबीएन7 संवाददाता नीतिश कुमार और कैमरामैन उज्जवल गांगुली की टीम ने 16 सौ किलोमीटर के खतरनाक सफर में नक्सलियों में छिड़ी इस खूनी जंग की पड़ताल की। झारखंड के चतरा में 27 मार्च 2013 की शाम लकरमंदा के जंगलों की शांति गोलियों की तड़तड़ाहट से टूट गई। माओवादियों पर घात लगा कर हमला हुआ। यहां नक्सलियों और सुरक्षाबलों में मुठभेड़ आम है लेकिन ये हमला जंगल की जंग में माहिर एक खूंखार छापामार गुट ने किया था। रात भर गोलियां चलीं और सुरक्षा बल सुबह ही हमले वाली जगह पर पहुंच सके। तबतक माओवादी और हमलावर दोनों वहां से जा चुके थे।
नक्सलियों में पड़ी फूट, ये है पहली मुठभेड़ की कहानी
मौका-ए-वारदात से मध्य जोन के चार कमांडरों समेत 10 माओवादियों की लाशें बरामद हुईं। तफ्तीश से पता चला कि माओवादियों पर तृतीय सम्मेलन प्रस्तुति कमेटी ने हमला किया था। चतरा के हमले के बाद से तृतीय सम्मेलन प्रस्तुति कमेटी यानी टीसीपीसी सुर्खियों में है। ये पिछले कुछ साल में माओावादियों पर कई बड़े हमले कर चुकी है। इसके कमांडरों का पक्ष जानने के लिए चैनल की टीम झारखंड के उन खौफनाक इलाकों में निकल पड़ी जहां एक गलती का मतलब निश्चित मौत है और तमाम खतरों का सामना करते हुए आखिरकार टीम टीसीपीसी के कमांडर से मिलने में कामयाब भी रही।



टीसीपीसी के कमांडर शुभम ने कहा कि वह भाकपा माओवादी के उच्च पदस्थ नेताओं से कहना चाहते हैं कि अब कोई भी गरीब आदिवासी उनकी गोलियों का शिकार नहीं होगा। इस संगठन का कोई कमांडर पहली बार टेलीविजन पर आने को तैयार हुआ। वो जिसने माओवादियों की नींद उन्हीं के गढ़ में उड़ा दी। आखिर यह माओवादियों को क्यों निशाना बना रहे हैं। जवाब तलाशने के लिए चैनल की टीम राजधानी रांची पहुंची।
प्रदेश के दूसरे इलाके खुशकिस्मत नहीं हैं। इन इलाकों में विकास का पहिया अटक गया है। रांची से 180 किलोमीटर दूर ऐसा ही जिला है चतरा। 4 घंटे का सफर तय करके यहां पहुंचा जा सकता है। चतरा भी जबरदस्त नक्सल प्रभावित इलाका है। यहां के समीकरण झारखंड के दूसरे नक्सल प्रभावित इलाकों से थोड़े अलग हैं।
चतरा के एसडीपीओ एस ए रिजवी ने बताया कि टीसीपीसी के लोग भी पहले सीपीआई माओवादी ही थे। लेकिन सीपीआई माओवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की हत्या की जाने लगी। लेवी वसूलना ही उनका एकमात्र धंधा हो गया। लोगों को टॉर्चर किया जाने लगा। इसी वजह से ये बंटवारा हो गया है। करीब 11 साल पहले टीसीपीसी का गठन माओवादियों में पड़ी फूट का ही नतीजा थी। रिजवी बताते हैं कि फूट की दो वजह थीं।
पहला टीसीपीसी का माओवादियों से सैद्धांतिक मतभेद। दूसरी टीसीपीसी की ये सोच कि सीपीआई माओवादी में यादव जाति का वर्चस्व है। नतीजतन चतरा के लवालॉंग में पूर्व माओवादी बृजेश गंजू उर्फ सरदारजी ने सीपीआई-माओवादी से बगावत कर दी। साल 2002 में तृतीय सम्मेलन प्रस्तुति कमेटी का गठन हुआ। टीसीपीसी में ज्यादातर दलित और आदिवासी मसलन भोक्ता, तूरी, बदई, ओरांव और गंजू शामिल हैं। 2007 तक इसके 70 सदस्य ही थे लेकिन अब इसकी तादाद सैकड़ों में है। टीसीपीसी का नेतृत्व ढांचा जोनल, सब-जोनल, जिला कमांडरों और उनके नीचे आम सदस्यों में बंटा है। चतरा, लातेहार और पलामू समेत 9 जिलों में इसका दबदबा है। टीसीपीसी का ऐलान है कि उसका दुश्मन नंबर एक सीपीआई-माओवादी है। सुरक्षाबल दुश्मन नंबर-दो हैं। इसीलिए माओवादियों का आरोप है कि टीसीपीसी को सुरक्षाबलों का समर्थन हासिल है।
टीसीपीसी के बारे में जानकारी जुटा लेने के बाद सीनियर कमांडरों से मिलने की कोशिश की गई। इसी बीच खबर आई कि भदुआ के जंगलों में माओवादी देखे गए और झारखंड आर्म्ड पुलिस की 9वीं बटालियन उनसे लोहा लेने निकल पड़ी। चैनल की टीम ने भी अपनी गाड़ी पुलिस पार्टी के पीछे लगा दी। माओवादियों पर हमला चतरा में हुआ था लेकिन टीसीपीसी के कमांडरों से मिलने की कोशिश हमें लातेहार ले गई। इस सफर के दौरान हम उस हकीकत से रूबरू हुए जिसने झारखंड के एक बड़े इलाके को लाल आतंक का शिकार बना दिया है।
चतरा के भदुआ जंगल में माओवादियों के दिखने की खबर है। झारखंड आर्म्ड पुलिस की 9वीं बटालियन सर्च ऑपरेशन पर निकल चुकी है। पुलिस पार्टी के सबसे आगे है बुलेटप्रूफ गाड़ी में रक्षक दल जो घात लगाकर होने वाले नक्सली हमलों से वर्दीवालों की रक्षा करती है। रक्षक के पीछे पुलिस की चार गाड़ियां हैं। थोड़ी देर में सर्च पार्टी जंगल में पहुंची। ये इलाका बेहद खतरनाक कहा जाता है। इस साल अब तक चतरा में सत्रह नक्सली मारे जा चुके हैं और पच्चीस नक्सलियों ने अब तक सरेंडर किया है। ये संख्या झारखंड के किसी भी नक्सल प्रभावित इलाके से ज्यादा है।
दरअसल झारखंड में चतरा से ही हथियारबंद नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई भी थी। चतरा एक तरफ बिहार के नक्सल प्रभावित गया से जुड़ा है तो दूसरी तरफ इसके पड़ोसी जिले पलामू, लातेहार, हजारीबाग नक्सल प्रभावित हैं। इसीलिए 1977-78 में गया, जहानाबाद, औरंगाबाद के साथ चतरा में भी माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर की शुरुआत हुई। कहते हैं एमसीसी की पहली कंपनी का गठन चतरा में कुंडा थाने के इलाके में हुआ। जिले के दुर्गम भौगोलिक हालात ने नक्सलियों को पांव पसारने का भरपूर मौका दिया।
2005 में नक्सलियों ने यहां एसीडीपीओ और सीआरपीएफ असिस्टेंट कमांडेंट समेत 12 पुलिसकर्मियों को मार दिया। 2002 में यहां एक सबइंस्पेक्टर समेत 10 पुलिसकर्मी माओवादियों का शिकार बन गए।
जंगलों में माओवादी घात लगाकर हमला करते हैं। सुरक्षाबलों को संभलने का मौका नहीं मिलता। दरअसल, अब अत्याधुनिक हथियार से लैस सर्च पार्टी जंगल से गुजरने वालों की जांच और उनसे पूछताछ शुरू कर चुकी है। सर्च पार्टी को माओवादियों से सामना होने का पक्का यकीन है।
राजपुर थाना के एसएचओ महावीर किंडो ने बताया कि हमें भदुआ के इन जंगलों में माओवादियों के होने की सूचना मिली थी। इससे पहले भी यहां मुठभेड़ हो चुकी है। उस समय हमने दो यादव भाइयों को पकड़ा था। हम इस तरह के ऑपरेशन करते रहते हैं। घने कांटेदार जंगल में शक वाले इलाके का चप्पा-चप्पा छान लिया गया। खुशकिस्मती से यहां किसी माओवादी से सामना नहीं हुआ। लिहाजा हमने भदुआ गांव का रुख कर लिया गया। करीब पांच सौ की आबादी वाले गांव में गरीबी बिखरी पड़ी है। आमदनी का जरिया खेती-बाड़ी है। पानी की कमी है। सबसे अधिक यहां नक्सलियों का खौफ है।
भदुआ के प्रधान योगेश यादव कहते हैं कि यहां के लोग दोनों पार्टियों से भयभीत हैं। बंदूक दिखाकर वो कहीं भी भेज देंगे और खाना मांगेंगे। इलाके का विकास न हो पाने से नक्सल पैदा हो रहे हैं और यही नक्सली यहां विकास नहीं होने दे रहे हैं। ये झारखंड ही नहीं देश के दूसरे नक्सल प्रभावित इलाकों की भी हकीकत है।
गरीबी देखने के दौरान ही टीसीपीसी के एक सीनियर कमांडर का सुराग मिला। वो कैमरे के सामने आने के लिए भी तैयार हो गया। लेकिन मुलाकात चतरा में ना होकर पड़ोसी जिले लातेहार में तय की गई। लातेहार चतरा से कम खौफनाक नहीं है। लेकिन हर खौफ को पार कर टीसीपीसी कमांडर तक पहुंचने में कामयाबी मिल ही गई।
टीसीपीसी कमांडर शुभम ने सिर्फ एक लाइन कहा कि वह भाकपा माओवादी के उच्च पदस्थ नेताओं से ये कहना चाहते हैं कि अब कोई भी गरीब आदिवासी उनकी गोलियों का शिकार नहीं होगा। टीसीपीसी कमांडर ने पहली बार किसी न्यूज चैनल को माओवादियों के साथ हुए 28 मार्च के एनकाउंटर की असली कहानी सुनाई।

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