Reality

कण-कण में भगवान यह घोर है अज्ञान। सब में है भगवान मूर्खतापूर्ण है यह ज्ञान। कण-कण में शक्ति, शरीरों में जीवात्मा, आकाश में आत्मा और परमआकाश रूप परमधाम में सदा रहते हैं परमात्मा, सिवाय अवतार बेला में एकमेव एक अवतारी शरीर मात्र के।

 

त्यं बद् !                                                तत्सत्                                              धर्मं चर !! 

'भगवत् कृपा हि केवलम्'(Only the Mercy of GOD)
ऋते ज्ञानान्न मुक्ति: -- ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं !(No Salvation without KNOWLEDGE)

सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

द्वारा 

नकली भगवानों का पर्दाफाश 

तथा  

सबकी वास्तविकता समाज में 
प्रिये बंधुओ । इस समय धरती पर नकली भगवानों की बाढ़ सी आयी हुई है।ये जितने भी तथाकथित धर्म गुरु हैं सब के सब अपने को भगवान घोषित करने मे लगे हुए हैं। धर्म के ये ठेकेदार धर्म के नाम पर जनता का शोषण करने लगे हैं। लेकिन धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले इन नकली भगवानों का यह पाखण्ड अब ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा क्योंकि अब इन सबका पर्दाफाश हो चुका है। जानिए कुछ ऐसे ही धर्म के नाम पर पाखण्ड फैलाने वाले नकली भगवानों की वास्तविकता –
  • निरंकार और निरंकारी
  • ॐ - वेद-आर्य और आर्य समाज
  • ओशो और रजनीश
  • सतपाल और उनका सोऽहँ - ( सोऽहँ और सोऽहँ वाले)
  • प्रजापति ब्रहमकुमारी
  • गायत्री परिवार
  • जय गुरुदेव
  • आशाराम बापू

 

 

ॐ - वेद-आर्य और आर्य समाज

 

आर्यसमाजियों को ही देखिए कि वेद को स्वीकार करते हैं-- ॐ को स्वीकार करते हैं-- यज्ञ-हवन नित्य करते हैं मगर एक दयानन्द को छोड़ कर सबकी निन्दा करना, सबका खण्डन करना इनका स्वभाव बन गया है। मण्डन का तो इनके यहाँ कोई महत्त्व महत्ता है ही नहीं जबकि खण्डन है तो मण्डन भी अवश्य ही होना चाहिए । वेद को ही भगवान मानेंगे और श्रीविष्णुजी-रामजी और श्रीकृष्णजी की घोर निन्दा-आलोचना करते हैं । रामायण-गीता- पुरण-बाइबिल-कुर्आन को तो ये सब बिल्कुल ही नहीं मानते हैं। अवतारवाद के तो ये सब घोर शत्रु हैं । ये घोर पाखण्डी व झगड़ालू भी होते हैं । ये जितने ही पाखण्डी होते हैं, उतने ही झगड़ालू भी, और मिथ्याहंकार के तो ये पुतला ही होते हैं । नि:संदेह सनातन धर्म के ये दीमक रूप कीट जैसे ही होते हैं, जो सनातन-धर्म रूप वृक्ष को ही खा जाना चाहते हैं । सनातन धर्म का मूल आधार पूर्णावतार (श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी) हैं उन्हीं के ये घोर आलोचक-निन्दक होते हैं । सुनना-समझना तो इनका अपमान है । न कोई साधना और न कोई ज्ञान, मात्र दम्भ और अभिमान ।



मुझ को किसी की झूठी चाटुकारिता आती नहीं और सच बोलना अहंकार ही निन्दा करना है तो है! कहा क्या जाय ? किया क्या जाय ? निष्पक्ष भाव सत्य हेतु अनिवार्य होता है। निष्पक्ष भाव से जाँच करें । सच्चाई सामने आ ही जायेगी कि क्या ये बातें सत्य ही नहीं है ?



यहाँ पर मैं जिस किसी के सम्बन्ध में लिख रहा हूँ बिल्कुल ही भगवत् कृपा के आधार पर--तत्तवज्ञान के प्रभाव से, न कि अहंकार से । आप भी जरा सोचिए कि मुझे बोलने-लिखने की आवश्यकता ही क्या है, जबकि आप को सच्चाई को जनाना ही न हो । उपदेश देना-लिखना आदि सब कुछ तो ''सत्य'' को जानने के लिए ही है और सत्यता किसी के बारे (सम्बन्ध) में बोला-लिखा जाता है तो निन्दा-आलोचना कहलाता है-- अहंकार भासता है । मैं तो ऐसे किसी भी व्यक्ति की खोज-तलाश करता हूँ, जो मेरे द्वारा किसी के सम्बन्ध में कहे-लिखे हुए बात को गलत प्रमाणित कर दे । 26 वर्ष में अब तक एक नहीं मिला । फिर मुझे निन्दक-आलोचक-अहंकारी क्यों मान लिया जाता है ? एक बार मिलकर (मुझसे भी ) सच्चाई की जानकारी क्यों नहीं कर ली जाती है ? फिर मैं जैसा लगूँ वैसा कहा जाय। यही सत्य होगा। मैं आपका भला-कल्याण चाहूँ-करूँ और आप सब मुझे निन्दक आलोचक कहें । क्या यह उचित है, सही है ? भगवत् कृपा विशेष से, तत्त्वज्ञान के प्रभाव से, न कि अहंकार से मुझे जैसा दिखलायी देता है, मैं ठीक वैसा ही कहने का प्रयास करता हूँ। वैसा ही लिखता भी हूँ-- यह सत्य है । जितने भी ऋषि-महर्षि -ब्रम्हर्षि-यति- योगी- सिध्द-आलिम-औलिया-पीर- पैगम्बर- प्राफेट्स- स्वाधयायी-विचारक- चिन्तक-आध्यात्मिक-साधक योगी-सन्त-महात्मा- तीर्थंकर-समस्त वर्ग सम्प्रदाय के अगुआ-प्रमुख (गुरु-सद्गुरु) यदि मुझे गलत अथवा आधे-अधूरे ही दिखलाई दे रहे हों जिसका सही-समुचित प्रमाण भी उन्हीं के उपदेश और उन्हीं के सद्ग्रन्थ-किताब से ही स्पष्टत: मिल रहा हो जिसे मैं जनाता-दिखाता भी हूँ तो इस पर मैं क्या कहूँ ? क्या लिखूँ ? हाँ, उन्हीं के उपदेश और उन्हीं के मूलग्रन्थ से मेरी बातों का स्पष्टत: और पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता, तब मैं अपने को ही अहंकारी- अभिमानी मान लेता । इतना ही नहीं, मुझे श्री विष्णु जी-श्री राम जी और श्रीकृष्ण जी गलत अथवा आधो-अधूरे क्यों नहीं दिखलायी देते हैं ? जबकि मैं न तो किसी के प्रति दुर्भावित हूँ और न तो किसी का भी अन्धाभक्त हूँ। मैं न तो किसी का निन्दक हूँ और न तो बन्दक (बन्दना करने वाला) हूँ । हाँ ! खुदा-गॉड-भगवान के कृपा विशेष और तत्त्वज्ञान के प्रभाव से ही जो कुछ भी कह रहा हूँ । नि:सन्देह ही इसमें हमारा कुछ भी नहीं। शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर यथार्थत: ये चार हैं, मुझसे जानें-देखें-परखें-पहचानें और हर प्रकार से सत्य होने पर ही सही, मगर 'सत्य' को अवश्य स्वीकार करें क्योंकि अन्तत: इसी में ही परम कल्याण है । निश्चित ही इसी में परम कल्याण है, अन्यत्र कहीं भी नहीं। 

शरीर --------------- जीव -------------- आत्मा ------------------- परमात्मा

शरीर --------------- जीव -------------- ईश्वर -------------------- परमेश्वर

शरीर --------------- जीव -------------- ब्रम्ह --------------------- परमब्रम्ह

शरीर --------------- जीव -------------- शिव-शक्ति ----------------- भगवान्

जिस्म -------------- रूह --------------- नूर ---------------------- अल्लाहतआला

बॉडी --------------- सेल्फ -------------- सोल --------------------- गॉड

स्थूलशरीर ----------- सूक्ष्म शरीर --------- कारण शरीर ------------- महा(परम)कारण शरीर

शिक्षा -------------- स्वाध्याय ---------- अध्यात्म(योग) --------------- तत्त्वज्ञान

एजुकेशन ----------- सेल्फ रियलाइजेशन ---- स्पिरीचुअलाइजेशन --------------- नॉलेज

स्थूल दृष्टि ---------- सूक्ष्म दृष्टि ---------- दिव्य दृष्टि ----------------- ज्ञान दृष्टि
नर्क-स्वर्ग ------------ स्वर्ग-नर्क ---------- शिव (ब्रम्ह) लोक ------------- परमधाम 

वास्तव में यथार्थत: ये चार हैं । इन चारों को दिखलाने और मुक्ति-अमरता देने हेतु भगवान लेते अवतार हैं ।

सतयुग में श्रीविष्णु जी, त्रेतायुग में श्रीराम जी, द्वापरयुग में श्रीकृष्ण जी और वर्तमान कलियुग में कल्कि अवतार सिवाय (उपर्युक्त) चारों को पूर्णतया पृथक्-पृथक् बात-चीत सहित-विराट भगवान् सहित साक्षात् दर्शन व परिचय-पहचान कराने वाला चारों युगों में ही कोई दूसरा हुआ ही नहीं और है भी नहीं । चार तो चार हैं, उपर्युक्त चारों में पृथक्-पृथक् अन्तर सहित पूरे भू-मण्डल पर ही किसी को भी तीन की भी यथार्थत: स्पष्ट एवं सुनिश्चित जानकारी-दर्शन नहीं। दुनिया में किसी की जानकारी में यदि कोई है तो सत्प्रमाणों सहित दिखला दे। मैं चुनौती हारकर उसके प्रति समर्पित-शरणागत हो जाऊँगा । मेरे यहाँ भी समर्पण-शरणागत करने-होने पर उपर्युक्त चारों ही उपर्युक्त प्रकार से प्राप्त होता है-- होगा भी। कोई प्राप्त कर जाँच-परख कर सकता है। सत्प्रमाणीय आधार पर खुली छूट है । साँच को ऑंच क्या ? आप आकर-मिलकर जाँच क्यों नहीं कर लेते ?

यह उस भगवान् का ज्ञान है जिसके सम्बन्ध में न तो देवी-देवता ही जानते हैं और न तो महर्षिगण ही जानते है । सृष्टि में अन्य किसी की बात छोड़िये, सृष्टि रचयिता ब्रम्हा, देवराज इन्द्र और सृष्टिके संहारक शंकर भी जिसके स्तुति बन्दना भी लेशमात्र भी नहीं जानते तो और कौन है जो उस सर्व के जाननहार को उसके कृपा दृष्टिरूप तत्त्वज्ञान के वगैर उसे जान ले और ज्ञानदृष्टि के वगैर स्पष्टत: एवं सुनिश्चिततापूर्वक समस्त वर्ग-सम्प्रदायों के सद्ग्रन्थों से प्रमाणित रूप में बात-चीत सहित साक्षात् दर्शन-दीदार कर ले (रामचरित मानस से गीता 10/2, भा0म0पु012/12/66, ऋग्वेद 1/164/38) । तत्त्वज्ञान भी केवल वही ही दे सकता है, दूसरा कोई भी नहीं। पूरे भू-मण्डल पर ही दूसरा कोई भी नहीं । एकमेव एकमात्र खुदा-गॉड-भगवान ही । उनके सिवाय अन्य कोई भी नहीं ।
--------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस








सतपाल और उनका सोऽहँ - ( सोऽहँ और सोऽहँ वाले) 


सोऽहँ की साधना करने वालों को बतला दूँ कि सोऽहँ-परमात्मा तो है ही नहीं, विशुध्दत: आत्मा भी नहीं है । यहाँ तक कि यह कोई योग की क्रिया भी नहीं है, बल्कि सोऽहँ तो श्वाँस और नि:श्वाँस के मध्य सहज भाव से होते -रहने वाला आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी स्थिति है, जो बिना कुछ किए ही होते रहता है। यह आत्मा (ज्योतिर्मय स:) का जीव (सूक्ष्म शरीर अहम् मय) बिना किए ही अनजान जीवित प्राणियों में जीवनपर्यन्त सहज ही होते रहने वाली स्थिति मात्र ही है--योग की क्रिया भी नहीं है क्योंकि क्रिया तो वह है जो करने से हो । जो बिना किए ही सहज ही होती रहती हो, उसे क्रिया कैसे कहा जा सकता है ? और सोऽहँ का श्वाँस-नि:श्वाँस के मध्य होते रहने वाली आत्मा की जीवमय तत्पश्चात् इन्द्रियाँ (शरीरमय) होता हुआ परिवार संसारमय होते हुए पतनोन्मुखी यानी विनाश को जाते रहने वाली एक सहज स्थिति है । योग भी नहीं है तो उसे ही तत्त्वज्ञान कह देना-मान लेना तो अज्ञानता के अन्तर्गत घोर मिथ्याज्ञानाभिमान ही हो सकता है, 'तत्त्वज्ञान' की बात ही कहाँ?

जब सब ही भगवान के अवतार हैं तो सद्गुरु कैसा ?

सोऽहँ वाले बन्धुजनों से एक बात पूछनी है कि क्या ऐसा कोई भी जीवित शरीर है, जो सोऽहँ की न हो ? और जब सोऽहँ ही खुदा-गॉड-भगवान् है, तब तो सब के सब मनुष्य ही भगवान् के अवतार हैं, फिर तथाकथित गुरु जी-सद्गुरुजी ही क्यों ? भगवान् भी अज्ञानी जिज्ञासुओं वाला और 'ज्ञानी' गुरुजी-तथाकथित सद्गुरुजी वाला दो प्रकार का होता है क्या ? एक भगवान् अज्ञानी और दूसरा भगवान् ज्ञानी ? यह कितनी मूढ़ता और मिथ्याहंकारिता है घोर ! घोर !! घोर !!! घोर मूढ़ता है ।

जब पूर्व में एक ही एक तो अब सब ही

पूरे सत्ययुग में एकमात्र श्रीविष्णु जी ही, पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र केवल एक ही भगवान के अवतार थे, ठीक वैसे ही त्रेतायुग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक ही श्रीराम जी और पूरे द्वापर युग में पूरे भू-मण्डल पर ही एकमात्र एक श्रीकृष्ण जी ही केवल भगवान के अवतार थे और आजकल-वर्तमान में सब ही मनुष्य ही सोऽहँ वाली शरीर होने के कारण भगवान् के अवतार हो गये ? कितनी हास्यास्पद बात है !

सत्ययुग-त्रेता-द्वापरयुग में ऋर्षि-महर्षि, ब्रम्हर्षि आदि और नारद-व्यास- शंकर जी आदि देववर्ग भी जो पतनोन्मुखी सोऽहँ नहीं, बल्कि ऊर्ध्वमुखी हँऽसो वाले भी थे, वे जब भगवान् के अवतार मान्य व घोषित नहीं हुए। तो आज-कल पतनोन्मुखी सोऽहँ वाले भगवान् के अवतार हो जायेंगे ? यदि कोई भी गुरु जी एवं तथाकथित सद्गुरु जी गण सोऽहँ मात्र के आधार पर ही भगवान् के अवतार मान व घोषित कर रहे हों, तो थोड़ा भी तो सोचो कि क्या यह घोर मिथ्या और हास्यास्पद नहीं है ? बिल्कुल ही मिथ्या और हास्यास्पद ही है । सोऽहँ वाले चेला जी भी भगवान् और सोऽहँ वाले गुरु जी भी भगवान् जी ! अरे मूढ़ थोड़ा चेत ! थोड़ी भी तो चेत कि यह कितनी बड़ी मूर्खता है !!

जीव और आत्मा (ईश्वर) का अवतार नहीं होता

यहाँ पर मुख्य बात तो यह है कि अवतार -- जीव (रूह-सेल्फ) और आत्मा (ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-डिवाइन लाइट-दिव्य ज्योति-ज्योतिर्विन्दु रूप शिव) का नहीं होता है। संसार में सारे गृहस्थ शरीर स्तर के; सारे के सारे स्वाध्यायी जीव (रूह-सेल्फ) स्तर के; सारे के सारे योगी-साधक-आध्यात्मिक- अध्यात्मवेत्ता सन्त-महात्मागण आत्मा (ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-डिवाइन लाइट-दिव्य-ज्योति-ज्योति विन्दु रूप शिव) स्तर के; और तत्त्वज्ञानी-तात्त्विक‌- तत्त्ववेत्ता परमतत्त्वम् स्तर के होते हैं । इन चारों स्तरों में क्रमश: पहले तीन स्तर वालों का अवतार नहीं होता है । एकमात्र केवल एक चौथे स्तर (परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप गॉड रूप खुदा-गॉड- भगवान् का ही अवतार होता है । यह अवतार ही सद्गुरु भी होता है । यह ही सत्य है।

सोऽहँ वाले साधक भी नहीं, तो ज्ञानी कैसे ?

संसार में तत्त्वज्ञान एवं योग-अध्यात्म रहित जितने भी गैर साधक के शरीर हैं और जीवित हैं वे सबके सब सोऽहँ की ही शरीर तो हैं । सोऽहँ व शरीर वाले गैर साधक होते हैं --साधक भी नहीं । तो जो साधक नहीं है वह तो योगी-आध्यात्मिक ही नहीं, तत्त्वज्ञानी होने की बात ही कहाँ ? अत: सोऽहँ आत्मा का जीवमय पतनोन्मुखी श्वाँस-नि:श्वाँस के बीच होते रहने वाली योग (अध्यात्म) विहीन गैर साधक की यथार्थत: सहज स्थिति है। सोऽहँ आत्मा भी नहीं है तो परमात्मा होने की बात ही कहाँ ? अवतार तो एकमात्र एकमेव ''एक'' परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्द रूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप शब्द (बचन) रूप गॉड रूप खुदा-गॉड-भगवान् का ही होता है, अन्य किसी का भी नहीं । सोऽहँ वालों ! थोड़ा भी तो अपने जीवन के मोल को समझो अन्यथा सोऽहँमय बना रहकर पतन होता हुआ विनाश को प्राप्त हो जायेंगे।

आप मनमाना जबर्दस्ती जिद्द-हठ वश सोऽहँ को ही भगवान् और सोऽहँ वाले झूठे और पतन और विनाश को ले जाने वाले गुरु को ही अवतार मान लोगे तो इससे आप अपने को ही धोखा दोगे । आप ही परमतत्त्वम् रूप परमसत्य से बंचित होंगे। हम लोग तो परम हितेच्छु भाव में आप सबको बतला दे रहे हैं-- समझना-अपनाना-जीवन को सार्थक-सफल तो आप को बनाना-न-बनाना है । आप चेतें-सम्भलें और सत्य अपना लें । यह सुझाव नि:सन्देह आप के परम कल्याण हेतु है कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें। मुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥

सोऽहँ तो मात्र अहंकार बढ़ाने वाला

आप सोऽहँ वाले बन्धुओं से एक बात पूछूँ कि क्या सोऽहँ-अहंकार को बढ़ाने और पतन और विनाशको ले जाने वाली सहज स्थिति मात्र ही नहीं है ? और है तो अपने लिये ऐसा क्यों करते हैं ? आप स्वयं देखें कि स: रूप आत्म शक्ति जब अहं रूप जीव को मिलेगी तो बढेग़ा 'अहंकार' ही तो। यह प्रश्न आप सब अपने आप से क्यों नहीं करते? आप में यदि अहंकार और मिथ्याभिमान नहीं बढ़ा है तो आप सभी के सोऽहँ और तथाकथित सोऽहँ क्रिया को बार-बार ही अहंकार को बढ़ाने और पतन-विनाश को ले जाने वाला चुनौती के साथ समर्पण-शरणागत करने-होने के शर्त पर कहा जा रहा है तो मेरे इस कथन-चुनौती भरे कथन को गलत प्रमाणित करने को तैयार होते हुए मेरे समक्ष उपस्थित होकर जाँच-परख ही क्यों नहीं कर-करवा लेते। सच्चाई का -- वास्तविकता का सही-सही पता चल जाता कि सोऽहँ क्या है ? सोऽहँ जीव है कि आत्मा है कि परमात्मा है ?

सोऽहँ जीव एंव आत्मा और परमात्मा तीनों में से कौन

सोऽहँ वाले गुरुओं को तो यह भी पता नहीं है कि सोऽहँ का 'सो' कहाँ से आकर श्वाँस के माध्यम से प्रवेश करता है और 'हँ' नि:श्वाँस के माध्यम से कहाँ को जाता है। यह भी बिल्कुल ही सच है कि उन्हें यह भी मालूम नहीं है कि सोऽहँ दो का संयुक्त नाम है या एक ही का या तीन का नाम है? यदि वे दो कहते हैं तो फिर सोऽहँ माने आत्मा कैसा जबकि आत्मा तो एक ही है । यदि एक ही आत्मा का नाम मानते हैं, तो जीव और परमात्मा का नाम क्या है ? सोऽहँ ही परमात्मा है तो जीव और आत्मा का नाम क्या है? धारती का कोई भी आध्यात्मिक गुरु यह रहस्य नहीं जानता कि इसकी वास्तविकता क्या है ?

सोऽहँ वाले गुरुओं को तो यह भी पता नहीं है कि सोऽहँ का 'सो' कहाँ से आकर श्वाँस के माध्यम से प्रवेश करता है और 'हँ' नि:श्वाँस के माध्यम से कहाँ को जाता है। यह भी बिल्कुल ही सच है कि उन्हें यह भी मालूम नहीं है कि सोऽहँ दो का संयुक्त नाम है या एक ही का या तीन का नाम है? यदि वे दो कहते हैं तो फिर सोऽहँ माने आत्मा कैसा जबकि आत्मा तो एक ही है । यदि एक ही आत्मा का नाम मानते हैं, तो जीव और परमात्मा का नाम क्या है ? सोऽहँ ही परमात्मा है तो जीव और आत्मा का नाम क्या है? धारती का कोई भी आध्यात्मिक गुरु यह रहस्य नहीं जानता कि इसकी वास्तविकता क्या है ?

अन्तत: आप की चाहत क्या है

अन्तत: अब निर्णय आप पर है कि आप सोऽहँ साधना से अपने अहंकार को बलवान बनाते हुए पतन को जाते हुए विनाश को जाना चाहते है, अथवा तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान प्राप्त करके भगवद् भक्ति-सेवा में रहते-चलते हुये पूर्ति-कीर्ति-मुक्ति तीनों को अथवा सर्वोच्चता-यश-कीर्ति और पूर्ति सहित मोक्ष पाना चाहते हैं

आध्यात्मिक गुरु-सद्गुरु को तो सोऽहँ का भी सही-सही पता ही नहीं !

कल्कि भगवान का यह चुनौती भरा कथन है कि पूरे भू-मण्डल पर ही एक भी कोई आध्यात्मिक गुरु तथाकथित सद्गुरुजी यह स्पष्टत: नहीं जानते कि सोऽहँ वास्तव में क्या है ? कहाँ से और कैसे उत्पन्न और संचालित-नियन्त्रित होता रहता है ? अथवा सोऽहँ वास्तव में 'जीव' है कि आत्मा-ईश्वर है कि परमात्मा-परमेश्वर है या इससे भी कुछ भिन्न है? जब हमे साधना ही करना है तो पतन-विनाश वाला ही क्यों करें उत्थान-कल्याण वाला क्यों नहीं करें ?

जाँच करने-करवाने हेतु कोई तो चुनौती स्वीकारें

इस उपर्युक्त चुनौती भरे कथन को गलत प्रमाणित करने वाले के प्रति कल्कि भगवान अपने सकल भक्त-सेवक समाज सहित गलत प्रमाणितकर्ता के प्रति समर्पित-शरणागत हो जायेंगे मगर सद्ग्रन्थीय व प्रायौगिक आधार पर भी गलत प्रमाणित के प्रयासकर्ता को भी गलत प्रमाणित कर सकने पर भगवद् सेवार्थ रूप धर्म-धर्मात्मा-धरती रक्षार्थ समर्पित-शरणागत-अपना सर्वस्व ही समर्पित-शरणागत करना-होना-रहना ही पडेग़ा । जब भक्ति-सेवा पूजा-आराधना करना ही है तो पतन-विनाश और आध-अधूरे का क्यों करें ? पूरा-पूरा वाले का क्यों नहीं ? सब भगवत् कृपा

तब योग-साधना की आवश्यकता ही क्यों ?

आप समस्त सोऽहँ-साधना वाले किसी भी गुरुजन अथवा उनके शिष्यजन से मुझ को एक बात पूछनी है जो आप लोगों पर ही है। क्या इसका उत्तर देने का कष्ट करेंगे ?

ऐसा भी अज्ञानी और साधनाहीन की भी कोई जीवित शरीर है जो सोऽहँ की न हो ? जो भी जीवित शरीर है, वह सोऽहँ की ही तो है । फिर साधाना की आवश्यकता क्यों ? सोऽहँ मात्र ही जब भगवान् है और सभी जीवित प्राणी सोऽहँ वाला ही है, तब तो सभी ही भगवान् हुये ! क्या भगवान् जब जो स्वयं सोऽहँ ही है, को भी सोऽहँ की साधना की जरूरत है ? गुरुजी भी सोऽहँ की शरीर और चेला जी भी सोऽहँ की शरीर ! यानी गुरु जी सोऽहँ और चेला जी भी सोऽहँ! यानी चेला भगवान् जी गुरु भगवान् जी की पूजा-पाठ करें ! यानी चेला भगवान् जी अपना धन-सम्पदा अपने पत्नि-लड़का-लड़की भगवान् जी लोगों से ले करके गुरु भगवान् जी को सौंप दे! ऐसी भक्ति, ऐसी सेवा, ऐसी पूजा-आराधना और ऐसे भगवानजन नाजानकारों नासमझदारों के नहीं तो भगवद् भक्तजन के हो सकते हैं क्या ? इस पर नाराजगी हो रही हो तब तो यही कहना होगा कि मतिभ्रष्टों के नहीं तो क्या सही भगवद्जन के हो सकते हैं ? थोड़ा गौर तो करें और सच्चाई समझने की कोशिश तो करें। क्या ऐसे ही भगवान जी उध्दव के नहीं थे ? जिसे गोपियों के माध्यम से त्याग करके अफसोस-प्रायश्चित के साथ समर्पण-शरणागत कर-हो करके श्री कृष्ण जी से 'ज्ञान' प्राप्त करना पड़ा ? क्या उध्दव की तरह से आप लोगों को भी सोचना-समझना और सम्भलना नहीं चाहिये ? नाजानकारी और नासमझदारी से उबर करके अध्यात्म से भी ऊपर वाले इस सम्पूर्ण वाले 'तत्त्वज्ञान' के माध्यम से भगवत् प्राप्त होकर भगवद् शरणागत हो-रहकर अपने जीवन को सार्थक-सफल नहीं बना लेना चाहिये ? अवश्य ही बना लेना चाहिये !

अन्तत: उपसंहार रूप में एक बात बताऊँ कि जो नहीं करता है, वह तो नहीं ही करता है मगर जो पूजा-आराधना-भक्ति-सेवा करना चाहता है, करता भी है, वह आध-अधूरे-झूठे का क्यों ? जब करना ही है तो पूर्ण-सम्पूर्ण-परमसत्य का ही क्यों नहीं ? 'अहँ ब्रम्हास्मि' वाला 'जीव' वाला और सोऽहँ-हँऽसो-शिव ज्योति आत्मा वाला मात्र ही क्यों ? परमात्मा-परमेश्वर-तत्तवज्ञान वाला क्यों नहीं?

सम्पूर्ण और परमसत्य लक्षण वाला परमेश्वर मानने का विषय-वस्तु नहीं होता है अपितु बात-चीत सहित साक्षात् देखते हुये जानने-देखने का विषय होता है ।

क्या प्राचीन गुरुओं ने शिष्यों को भगवत् प्राप्ति और मोक्ष से बंचित नहीं करा दिये थे ?

फिर आप अपने को सोचिए
एक बात सोचिये तो सही ! सत्ययुग-त्रेता-द्वापर में भी हजारों-हजारों गुरुओं ने अपने शिष्यों के बीच अपने को भगवान् की मान्यता देते-दिलाते हुये अपने में ही भरमाये-भटकाये-लटकाये रखते हुये परमब्रम्ह-परमेश्वर-खुदा- गॉड-भगवान् के पूर्णावतार श्रीविष्णु-राम-कृष्ण जी महाराज के भगवत्ता के वास्तविक प्राप्ति से क्या बंचित नहीं कर-करा दिये ? क्या उन शिष्यों का भक्ति-सेवा के अन्तर्गत कहीं कोई अस्तित्तव-महत्तव है ? कुछ नहीं ! नामों-निशान तक नहीं! क्या उन सभी लोगों (तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों) का सर्वनाश नहीं हो गया? क्या वर्तमान में ऐसी ही बात आप सबको अपने पर नहीं सोचना चाहिये? अपने-अपने गुरुजी को ही भगवान् ही मान करके भटके-लटके रहेंगे और वर्तमान में अवतरित भगवत् सत्ता का लाभ प्राप्त नहीं कर सकेंगे तो क्या आप भी उन्हीं तथाकथित गुरुजनों के शिष्यजनों की तरह ही विनाश-सर्वनाश को प्राप्त नहीं हो जायेंगे ? चेतें-सम्भलें नहीं तो अवश्य ही हो जायेंगे

चेते-सम्भलें, अनमोल अपने मानव जीवन को व्यर्थ न गवाएँ !

अन्त में एक वाक्य कहूँगा कि परमेश्वर के असीम कृपा से मानव जीवन रूप अनमोल रतन मिला है । इसे व्यर्थ ही न गवाँ दें । ईमान और सच्चाई से पूर्वोक्त बातों को ध्यान में रखते हुये चेतें-सम्भलें और अपने अनमोल रतन रूप जीवन को सफल-सार्थक बनावें । भगवत् कृपा से मेरी भी ऐसी ही आप के प्रति शुभ कामनायें हैं । न चेते, न सम्भलें तो इसमें भगवान क्या करें । अत: चेतें और सम्भले । जीवन जो वास्तव में अनमोल रत्न है, को सार्थक-सफल बनाएँ । सब भगवत् कृपा से । भक्ति-सेवा-पूजा गुरु मात्र की नहीं अपितु एकमेव खुदा-गॉड-भगवान् का ही करना चाहिए यह सही तत्तवज्ञानदाता सद्गुरु ही भगवान् होता है मगर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि गुरु ही भगवान् होता है । यह सही है कि भगवान् ही सद्गुरु होता है । क्या एक साथ ही हजारो-हजारों गुरु नहीं है ? भगवान् ही सद्गुरु होता है ?

किसी का भी नामो-निशान तक भी नहीं है

आप यह कह सकते हैं कि मैं अपने गुरुजी से सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरुजी ही भगवान् के अवतार हैं; अब मुझे कहीं किसी दूसरे की कोई जरूरत नहीं; मुझे जो मन्त्र-तन्त्र-नाम-जप-ध्यान-ज्ञान, जो कुछ भी मिला है, उससे मैं काफी सन्तुष्ट हूँ; मेरे गुरु जी मात्र ही सही हैं और सब लोग गलत हैं । तो क्या यह वाक्य सही नहीं है कि ''गुरु करें दस-पाँचा । जब तक मिले न साँचा॥'' क्या ऐसी ही मान्यता सत्ययुग-त्रेता-द्वापर के भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी और भगवान् श्री कृष्ण जी के अवतार बेला में उस समय के गुरुजनों के शिष्यों में नहीं था ? ऐसे ही था ! तभी तो वे लोग अपने तथाकथित गुरुजनों में भटके-लटके रहकर अपने अस्तित्तव और महत्तव दोनों का ही सर्वनाश करा लिये । भगवद् भक्त-सेवकों में नामों-निशान तक नहीं आ सका । किसी भी गुरुजन के किसी भी शिष्य का भगवद् भक्ति-सेवा के अन्तर्गत किसी भी प्रकार का कोई भी अस्तित्तव-महत्तव है ? कोई नामों-निशान है ? कोई नहीं ! देख लीजिये बशिष्ठ के शिष्यों का--याज्ञवल्वय के शिष्यों का--बाल्मीकि के शिष्यों का--व्यास के शिष्यों का, किसी का कोई अस्तित्तव है ? अठ्ठासी हजार शिष्यों के विश्वायतन चलाने वाले शौनक के शिष्यों में से कितने का नामों-निशान है ? कोई नहीं ! अरे भईया ! दस हजार शिष्यजन तो दुर्वासा जी के पीछे-पीछे घूमते रहे । उन शिष्यजनों में से कितने का अस्तित्तव महत्तव-नाम किसी को मालूम है ? अर्थात् किसी का भी नहीं ! थोड़ा इधर भी देख लीजिये । श्रीविष्णु जी से 'तत्वज्ञान' पाने वाला मनुष्य भी नहीं, गरुण पक्षी; श्रीराम जी की भक्ति-सेवा करने वाला कौआ काक-भुषुण्डि हो गया । गिध्द जटायु, गिध्द सम्पाती, भालू जामवन्त और बानर हनुमान, राक्षस परिवार का विभीषण, अरे भईया पुल बाँधाने में सहायता करने वाली छोटी सी गिलहरी की सेवायें भी नहीं छिप सकीं।

इतना ही नहीं, अपने नानी के नानी का नाम अधिकतर लोगों को प्राय: किसी को भी पता नहीं रहता जबकि ''अधम से अधम, अधम अति नारी शेबरी'' का नाम हर श्रीराम जी को जानने वाले के जानकारी में है । क्या हुआ उन गुरुजनों के भक्ति-सेवा का ? कहीं कोई भक्ति-सेवा में उनका नामों-निशान है ? कहीं कुछ नहीं ! जबकि पूर्णावतार के भक्त-सेवकजनों का अमरकथा आप पढ़-सुन-जान रहे हैं । क्या यह सब सही ही नहीं है ? फिर वर्तमान के भगवान् के पूर्णावतार को छोड़कर पूर्वोक्त शिष्यजनों के तरह से ही अपने गुरुओं को ही भगवान् मान-मानकर भटके-लटके रहेंगे तो आप सबकी भी गति-दुगर्ति भी क्या वही नहीं होगी ? अरे भईया ! भगवान् वाला ही बनिये ! इसी में परम कल्याण है। यदि मोक्ष नहीं और भगवत् प्राप्ति नहीं, तो गुरु जी और दे ही क्या सकते हैं ? अर्थात् कुछ नहीं ! फिर तो मोक्ष और भगवत् प्राप्ति के लिये आगे बढ़ें । सच्चाई को देखते हुए वगैर किसी सोच-फिकर के सबसे पहले आप जिज्ञासु भक्तजन मुझसे तत्तवज्ञान के माध्यम से भगवद् भक्ति-सेवा करते हुए जीव-आत्मा और परमात्मा तीनों को ही पृथक्-पृथक् प्राप्त करते हुए मुक्ति अमरता रूप मोक्ष का साक्षात् बोध प्राप्त करते हुए गीता वाला ही विराटपुरुष का साक्षात् दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ होवें सब भगवत् कृपा ।

कहता हूँ मान लें, सत्यता को जान लें ।
मुक्ति-अमरता देने वाले परमप्रभु को पहचान लें ॥
जिद्द-हठ से मुक्ति नहीं, मुक्ति मिलती 'ज्ञान' से । 
मिथ्या गुरु छोड़ो भइया, सम्बन्ध जोड़ो भगवान से ॥

---------------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस








शिव व लेखराज और प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले 

 

  लेखराज बाबा 

किसी को उपदेश देना एक पवित्र कार्य है । उसमें भी धर्मोंपदेश देना तो बहुत ही पवित्र कार्य है । समाज को ज्ञानमय-भगवन्मय उपदेश देना तो जीवन का उद्देश्यमूलक सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्तम और परम पवित्र कार्य है । किसी को भी किसी भी कार्य को करते समय कम से कम इतनी सावधानी तो अवश्य ही बरतनी चाहिए कि इस उपदेश या कार्य से किसी को भी किसी भी प्रकार की कोई क्षति या हानि न हो । इतनी जिम्मेदारी तो हर किसी उपदेशक या कार्यकर्ता को अपने ऊपर लेना ही चाहिए कि मेरे उपदेश या कार्य से किसी का भला-कल्याण हो या न हो मगर क्षति या हानि तो न ही हो । भला-कल्याण करना ही धर्मोपदेशक का एकमेव एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये--होना ही चाहिए । किसी भी विषय-वस्तु का उपदेशक बनने-होने के पहले सर्वप्रथम यह बात जान लेना अनिवार्यत: आवश्यक होता है कि उस विषय-वस्तु का परिपक्व सैध्दान्तिक-प्रायौगिक और व्यावहारिक जानकारी स्पष्टत:-- परिपूर्णत: हो। धर्मोपदेशक के लिए तो यह और ही अनिवार्य होता है मगर आजकल ऐसा है नहीं । धर्मोपदेश जैसे पवित्रतम् विधान को भी आजकल धन उगाहने का एक धन्धा बना लिया गया है जिससे धर्म की मर्यादा भी क्षीण होने लगती है, होने लगी भी है ।

धर्मोंपदेशक अथवा गुरु बनना--सद्गुरु बनना आज-कल एक शौक-धन्धा, बिना श्रम का मान-सम्मान सहित प्रचुर मात्रा में धन-जन को एकत्रित करना हो गया है । भले ही परमेश्वर और ईश्वर तो परमेश्वर और ईश्वर है, जीव की भी वास्तविक जानकारी न हो । अब आप सब स्वयं सोचें कि ऐसे गुरुजन सद्गुरुजन-धर्मोपदेशक बन्धुजन क्या धर्मोपदेश देंगे ? ऐसे धर्मोपदेशकों के धर्मोपदेश से कैसा दिशा निर्देश और मार्गदर्शन होगा ? समाज में इतना भ्रम फैलेगा कि हर कोई मंजिल के तरफ जाने के बजाय प्रतिकूल दिशा में जाने लगेगा, जिसका दुष्पिरिणाम यह होगा कि भगवान् और मोक्ष (मुक्ति-अमरता) के आकर्षण के बजाय हर कोई माया और भोग में आकर्षित होता हुआ मार्ग-भ्रष्ट हो ही जायेगा। समाज में भगवान् के प्रति आकर्षण के बजाय विकर्षण होने लगता है और भगवद् भक्ति-सेवा के बजाय मनमाना नाना प्रकार के विकृतियों का शिकार हो जाया करते हैं । वर्तमान में ऐसे ही होने भी लगा है। चारों तरफ देखें।

आजकल के गुरुजनों की स्थिति बड़ी ही विचित्र हो गयी है । समाज कल्याण तो अपने मिथ्यामहत्तवाकांक्षा की पूर्ति के लिए एक प्रकार का मुखौटा मात्र बनकर रह गया हैं । मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकारमय बना रहना और चाहे जिस किसी भी प्रकार से हो, धन-जन-आश्रम बढ़ाना मात्र ही धर्म रह गया है । दूसरे को उपदेश तो खूब दे रहे हैं मगर अपने पर थोड़ा भी लागू नहीं कर पा रहे हैं ।

ऐसे ही महात्मजनों में एक लेखराजजी और उनका समाज भी है जिन्होंने एक संस्था प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय संस्थापित किया। यह संस्था जितनी ही ढोंगी-पाखण्डी है, उतनी ही धूर्तबाज भी है । जितनी ही अज्ञानी है, उतनी ही मिथ्याज्ञानाभिमानी भी है। इस संस्था को परमात्मा-परमेश्वर का ज्ञान तो बिल्कुल ही नहीं है, आत्मा-ईश्वर का भी ज्ञान नहीं है । जीव की भी इसे कोई जानकारी नहीं है । इतना ही नहीं, इसे तो मन-बुध्दि-संस्कार की भी जानकारी नहीं है कि ये सब क्या हैं ?

इतना ही नहीं, आश्चर्य की बात तो यह है कि इन्हें यह भी नहीं मालूम कि हवा का रूप होता है कि नहीं । 'रूप' शब्द क्या है ? कहाँ पर इसका प्रयोग होता है ? लेखराज और इसके संस्था वाले बिल्कुल ही इससे अनभिज्ञ हैं । मगर ढोंगी-पाखण्डियों का ही आज-कल प्रचार-प्रसार, बोल-बाला और सारी मान्यताएँ हैं । शान्ति-शान्ति कहते रहिए जनमानस के धन-धरम दोनों का शोषण करते रहिए, सरकार को कोई परेशानी नहीं हैं क्यों भाई ? इसलिए कि शान्ति वाले है जिससे राजनेता भी प्रसन्न हैं भले ही जनता का धन-धरम दोनों जाय जहन्नुम-नरक में ।

इसका मुखौटा श्रीकृष्ण जी से सराबोर है । महाकुम्भ जैसे विश्व के सबसे बड़े धर्म मेले में इसका पण्डाल और मुख्य द्वार ऐसा सजाया जाता है कि लगता है कि कृष्ण जी की सबसे बड़ी भक्ति और प्रचारक संस्था यही है। मगर अन्दर से देखिये तो कितनी बड़ी धूर्तबाजी है कि श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान है । श्रीराम और श्रीकृष्ण जी का घोर अपमान और अपने लेखराज तथाकथित ब्रम्हा बाबा का पूर्ण सम्मान जैसे अज्ञानता मूलक बकवास ही देखने को मिलेगा, जिसका किसी भी ग्रन्थ से कोई प्रमाण नहीं-- कोई मान्यता नहीं, फिर भी राजनेता तो इसको और ही सिर-माथे चढ़ा लिये हैं जिससे जनता भी फँसती जाती है।

यह संस्था शान्ति का मुखौटा पहन कर चाटुकारिताप्रिय राजनीतिज्ञ की चाटुकारिता कर-कर के उपराष्ट्रपति से और राष्ट्रपति महोदय आदि आदि से अपने यहाँ बार-बार किसी न किसी सभा-उत्सव का उद्धाटन करवाते रहते हैं और उसी के आड़ में समाज का धन-धर्म दोनों का ही दोहन-शोषण करने में लगे हैं । यह संस्था जितना ही घोर आडम्बरी- पाखण्डी है उतना ही धूर्तबाज भी, और उससे भी अधिक राजनीतिज्ञों का चाटुकार भी ।

घोर घोर घोर अनर्थकारी संस्था है प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीयविश्वविद्यालय

क्या कहा जाय ऐसे जनमानस को ! हवा, मन, बुध्दि, संस्कार, जीव, आत्मा, परमात्मा, अनुभव, देखना, मुक्ति-अमरता आदि आदि व ब्रम्हा जी, विष्णु जी, शंकर जी, 84 लाख योनियाँ, पुर्नजन्म-अवतार- अवतरण आदि की ऐसी ऊल-जलूल शास्त्र के विरुद्व मनमाना गलत अर्थ तोड़-मरोड़ कर सारे शब्दों के अर्थ-मान्यता को अनर्थ करते जा रहे हैं। राजनेता लोग इस आडम्बर-ढोंग-पाखण्ड को जान-देखकर रोकने के बजाय भरपूर हवा देने में लगे हैं क्योंकि इन सबों के शान्ति के मुखौटा के ये नेताजी लोग शिकार हो चुके हैं । शान्ति शान्ति बोलते रहो और जनमानस के साथ धूर्तबाजी करते हुये धन-धर्म दोनों का शोषण करते रहो । सरकार के लिये सब कुछ ठीक है। सरकार को तो शान्ति- शान्ति-शान्ति चाहिये, भले ही उसके आड़ में आप जनता के धन-धर्म दोनों का ही शोषण करते-कराते हुये नाश-विनाश तक करते रहें । सरकार के लिये सब ठीक ही है क्योंकि आप शान्ति का नारा जो लगा रहे हैं, शान्ति-शान्ति जो चिल्ला रहे हैं । फिर तो सरकार आप के सुरक्षा में है ही । सरकार को सत्य और अपनी जनता के कल्याण से क्या मतलब ?

जितना ही घोर अज्ञानी उतना ही मिथ्याज्ञानाभिमानी

nbsp; यह तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था ऐसी घोर मिथ्याज्ञानाभिमानी संस्था है कि परमात्मा -परमेश्वर- आत्मा-ईश्वर-जीव, मन-बुध्दि-संस्कार, प्रकृति-हवा, तत्त्वज्ञान, योग या अधयात्म-स्वाध्याय, चौरासी लाख योनियाँ, ब्रम्हा-विष्णु-महेश-शिव, श्रीराम-श्रीकृष्ण-अवतरण और अवतार आदि आदि धर्म प्रधान, अस्तित्व प्रधान, ज्ञान और योग प्रधान आदि शब्द जो हैं-- इनके बारे (सम्बन्ध) में ये बिल्कुल ही अनजान हैं । फिर भी अपने को मनमाने तरीके से शास्त्र के विरुध्द यानी शास्त्रों में वर्णित शब्दों के सत्यतामूलक अर्थों-व्याख्यानों-भावों को अपने मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकारवश तोड़-मरोड़ कर अर्थ-- शुध्द व सही अर्थ को न जान-समझ सकने के कारण अनर्थ कर-कराकर जनमानस को ऐसा दिग्भ्रमित-- ऐसा दिग्भ्रमित करने पर लगे हैं कि जनमानस में श्रीराम जी, श्रीकृष्ण जी, ब्रम्हा जी, श्रीविष्णु जी, तत्त्वज्ञान, योग... .आदि उपर्युक्त शब्दों की सद्ग्रन्थों (गीता-पुराण आदि सद्ग्रन्थों) की सही और शुध्द-विशुध्द भावों के प्रति अपवित्र-अशुध्द-दुर्भाव रूप विकृत-घृणित भाव पैदा-उत्पन्न करने और उस विकृत घृणा भाव को सुकृत-सत्कृत् भाव का रूप देता हुआ अति तीव्रता से फैलाने में लगे हैं । जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि सनातन धर्म के मान्यता प्राप्त सद्ग्रन्थों के मान्यता-मर्यादा को बड़े ही योजना बध्द तरीके से शान्ति: शान्ति: के आड़ में विध्वंस किया जा रहा है समाप्त किया जा रहा है ।

सत्य और सद्ग्रन्थों के अस्तित्त्व और सद्भाव को नष्ट कर विकृत् दुर्भाव फैलाना

ऐसा-ऐसा खींच-तान करके मनमाने और ऊल-जलूल अर्थ-तर्क प्रस्तुत कर-कराके 'परम पवित्र सत्य प्रधान धर्म' का चोला पहनकर-- मुखौटा लगाकर ''सत्य और सद्ग्रन्थ'' के अस्तित्त्व और सद्भाव को अपने घोर अपवित्र असत्य-अधर्म को फैलाकर नष्ट-समाप्त करने पर अत्यन्त तीव्र गति से यह तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हा कुमार कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था लगी हुई है । विश्व स्तर पर ही सनातन पौराणिक मान्यताओं को नष्ट किया जा रहा है, सनातन सत्य मान्यता को समाप्त कर उसके स्थान पर भष्ट-झूठी मान्यताएँ स्थापित की जा रही हैं ।

यह घोर असत्यवादी और अधार्मिक संस्था है, प्रमाणित करने को तैयार हूँ

भगवत् कृपा और तत्त्वज्ञान के प्रभाव से मैं उपर्युक्त संस्था के प्राय: या लगभग समस्त जानकारियों को जो उनके किताबों द्वारा दी-फैलायी जा रही है, प्राय: या लगभग समस्त को ही असत्य (मिथ्या), भ्रामक (दिग्भ्रमित करने वाला ऊल-जलूल कुतर्क पर आधारित), घोर असत्य और अधर्म पर आधारित व शास्त्र-सद्ग्रन्थ विरुद्व प्रमाणित करने की खुले मंच से खुली चुनौती देता हूँ । पूर्वोक्त पैरा (पुन: एक बार पढ़-देख लें) के समस्त चुनौती भरे कथन को सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों के आधार पर आवश्यकता महसूस होने पर प्रायौगिक (प्रैक्टिकल) के आधार पर भी सत्य और सद्ग्रन्थीय होने की पूरी चुनौती दे रहा हूँ । साथ ही साथ यह भी चुनौती दे रहा हूँ कि मेरे पूर्वोक्त पैरा के कथनों-तथ्यों को सद्ग्रन्थों और प्रायौगिकता के आधार पर भी उक्त तथाकथित संस्था के किसी भी अधिकारिक व्यक्ति द्वारा गलत प्रमाणित करने वाले के प्रति अथवा उक्त संस्था के प्रति मैं अपने सकल सेवक समाज सहित समर्पित-शरणागत हो जाऊंगा । मगर एक बात याद रहे कि कोई भी एकतरफा शर्त वैधानिक आधार पर मान्य नहीं होता है । इसलिए मेरे पूर्वोक्त कथनों को वे सद्ग्रन्थीय अथवा प्रायौगिक (प्रैक्टिकली) आधार पर गलत प्रमाणित नहीं कर सके-- मेरे उक्त कथन सत्य ही साबित प्रमाणित हो जाने पर उक्त संस्था के सदस्यों और आश्रमों को भी 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' रक्षार्थ भगवान के प्रति भी समर्पित-शरणागत करना-होना-रहना ही पडेग़ा । यह अपने को सही और पूरण कहने वालों को गलत अथवा आध-अधूरा प्रमाणित करने वाला चुनौती इस पुष्पिका के अन्तर्गत उल्लिखित समस्त पूर्वापर (पूर्व और पश्चात् के) महात्मागण (धर्मोपदेशकों) के लिए भी है। किसी के प्रति कोई भेद-भाव नहीं है । समस्त चुनौती व शर्त सबके लिए है-- सबके ही लिए है।

तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय नामक संस्था के किताबों-उपदेशों में से कौन-कौन से ''शब्द-विषय'' भ्रामक-मिथ्या-गलत और घोर अधार्मिक व शास्त्र विरुध्द हैं--पूछने पर मैं तो यथार्थत: और स्पष्टत: यही कहूँगा कि एक-आध शब्द-बात-तथ्य-विषय को छोड़कर उनके समस्त किताबों के समस्त विषयों-तथ्यों-शब्दों जो पूर्वोक्त पैरा में हैं, प्राय: या लगभग समस्त को ही भ्रामक-मिथ्या- गलत-घोर अपवित्र-अधार्मिक, शास्त्र विरुध्द और सद्ग्रन्थ विरुध्द प्रमाणित करने की चुनौती देता हूँ । यहाँ विस्तार से बचने के लिये दो-चार तथ्यों को अति संक्षिप्तत: प्रस्तुत कर दे रहा हूँ कि समझ में आ जाय कि उपर्युक्त बातें मात्र कथनी की नहीं अपितु सत्य-तथ्य पर आधारित हैं । उनकी किताबों से:- 
1 . क्या आप जानते हैं कि गीता-ज्ञान किसने दिया था अर्थात् गीता के भगवान् कौन ? 
उक्त संस्था का कथन है कि गीता-ज्ञान श्रीकृष्ण ने नहीं दिया था बल्कि निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने दिया था और फिर गीता-ज्ञान से सत्ययुग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था आदि आदि इसी प्रकार की बहुत सी ऊल-जलूल व मिथ्यात्त्व पर आधारित बातें लिखी गयी हैं । यहाँ पर स्थानाभाव के चलते एवं विस्तृत विस्तार से बचने हेतु मुख्य-मुख्य बातें और तथ्यों से ही समझने का प्रयत्न करें ।

यह सर्व विदित है कि गीता-ज्ञान भगवान् श्रीकृष्ण जी ने ही दिया था, शिव ने नहीं । अब यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि--शिव कौन और श्री कृष्ण कौन ? उक्त प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ई0वि0 विद्यालय के कथनानुसार शिव एक ज्योति बिन्दु है यानी शिव एक दिव्य ज्योति हैं । पुन: उक्त संस्था के अनुसार श्रीकृष्ण मात्र एक सांसारिक मनुष्य है, जो देवता कहला सकते हैं या देवता हैं। मेरा कथन है कि..... प्राय: हर वर्ग-सम्प्रदाय और संस्था-समाज वालों में एक घोर विकृति यह छायी हुई दिखायी देती है कि अपने और अपने अगुओं को तो ये सब के सब शरीर से अलग जो मूलभूत सूत्र-सिध्दान्त होता है, उस आधार पर और उस दृष्टि से देखते हैं परन्तु अन्यों को शारीरिक-बिल्कुल ही सांसारिक-शारीरिक दृष्टि से देखते हैं । यहीं पर भ्रम-भूल और तत्पश्चात् गलतियाँ होनी शुरु हो जाती हैं। यह स्थिति प्राय: समस्त वर्ग-सम्प्रदाय-संस्था और समाज में ही है-- सभी के सभी ही इसी भ्रम-भूल और गलती के शिकार हैं ।

यही उपर्युक्त स्थिति उक्त संस्था की भी है कि लेखराज (तथाकथित ब्रम्हा बाबा) तो उस ज्योति विन्दु के अंश और कहीं-कहीं पूर्ण अवतरित (ज्योति विन्दु ही अवतरित) दिखायी दे रहे हैं और श्रीकृष्ण मात्र शारीरिक-सांसारिक और जन्मने-मरने वाला मनुष्य या क्षमता-शक्ति सामर्थ्य के चलते अधिक से अधिक देवता तक दिखायी दे रहे हैं। यह उपर्युक्त पैरा वाली ही बात हुई।

मुझ को लेखराज तथा उनके संस्था प्र0ब्र0कु0ई0वि0 विद्यालय के इस मान्यता कि 'शिव' एक ज्योति विन्दु हैं, ज्योतिर्मय विन्दु ही शिव हैं, को स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि यही सही है । परेशानी तो वहाँ है कि ज्योतिर्विन्दु शिव ही परमपिता परमात्मा है-- यह सही नहीं है । यह बिल्कुल ही गलत है । परमपिता परमात्मा तो दिव्य ज्योति-ज्योतिर्विन्दु रूप आत्मा-शिव का भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप अलम् रूप शब्द (बचन) रूप खुदा-गॉड- भगवान् है । परमपिता परमात्मा तो आत्मा-ईश्वर- शिव सहित सारी सृष्टि का ही पिता, संचालक, नियन्त्रक और लय-विलय कर्ता होता है और वह ही श्रीकृष्णजी के रूप में अवतरित था । श्री कृष्ण जी ज्योति विन्दु रूप शिव के भी पिता रूप परमतत्त्वम् रूप भगवत्तत्त्वम् के ही साक्षात् पूर्णावतार रूप साक्षात् भगवदवतार ही थे

'शिव स्वरोदय' के आधार पर भी शिव-शक्ति-ज्योतिर्मय हँऽसो है और सोऽहँ- हँऽसो-ज्योति का परमपिता और स्वामी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् है । यही 'अलम्' खुदा अथवा शब्द (बचन) रूप गॉड भी है । इसी खुदा-गॉड-भगवान् के साक्षात् पूर्णावतार ही भगवान् श्रीविष्णु जी, भगवान् श्रीराम जी और भगवान् श्रीकृष्ण जी थे जो ज्योति रूप आत्मा-हँऽस-शिव के भी परमपिता और संचालक स्वामी भी थे ।

श्वेताश्वतरोपनिषद् के मन्त्र संख्या 4/18 में स्पष्टत: है कि परमात्मा-परमेश्वर अन्धकार तो है ही नहीं, दिव्य ज्योति भी नहीं है, बल्कि वह दोनों से ही परे और कल्याणरूप 'तत्त्वम्' है जबकि प्रजापिता ब्र0 कु0 ई0 विश्वविद्यालय वाले आत्मा को तो कहीं सूक्ष्म आकृति और कहीं-कहीं ज्योति माने ही हैं, परमात्मा को भी ज्योतिर्विन्दु ही कहते हैं। लेखराज और सरस्वती सहित उनके प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय वाले जितना ही ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी-गलत-झूठ और धूर्तबाज हैं, उतना ही मिथ्याहंकारी भी हैं । जितना ही अज्ञानी हैं, उतना ही भ्रमज्ञानी, मिथ्याज्ञानाभिमानी भी हैं। इन सबों को तो इतना भी पता नहीं है कि- 
1 . हवा में रूप होता है कि नहीं ? होता है तो कैसा है ? नहीं, तो क्यों ?
2 . मन क्या चीज है ?
3 . बुध्दि क्या है ?
4 . जीव क्या चीज है ? यह तो इन लोगों का विषय ही नहीं है
5 . आत्मा कहीं से सुन-पढ़ लिए हैं कि एक ज्योति विन्दु है, जानकारी नहीं है, क्योंकि प्राय: आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ भी जानकारियाँ इनके यहाँ-- ईश्वरीय ज्ञान का साप्ताहिक पाठयक्रम में लिखी हैं, प्राय: सबकी सब झूठी-गलत एवं भ्रामक हैं ।

यह सद्ग्रन्थों द्वारा प्रमाणित करने की मैं खुली चुनौती दे रहा हूँ और यह भी कह रहा हूँ कि झूठा-गलत व भ्रामक और शास्त्र विरुध्द न प्रमाणित कर दूँ तो अपने सकल भक्त-सेवक समाज सहित उनके प्रति पूर्णत: समर्पित-शरणागत हो जाऊँ, मगर प्रमाणित कर दूँ तो उन्हें भी पूर्णत: समर्मित-शरणागत करना होगा । सब भगवत् कृपा ।

उन लोगों की जानकारी और मान्यता में आत्मा तो ज्योति है ही, परमात्मा भी वैसा ही ज्योति विन्दु ही है, जो सरासर गलत है। जीव के सम्बन्ध में तो उनके यहाँ कोई जिक्र ही नहीं है, जबकि आत्मा का सारा वर्णन, जीव का ही वर्णन जैसा ही है और इनका जो ज्योतिर्विन्दु रूप शिव है, उन्हें यह भी पता नहीं कि वह परमपिता परमात्मा नहीं है, बल्कि आत्म-ज्योति रूप आत्मा-दिव्य ज्योति रूप ईश्वर-ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति-स्वयं ज्योति रूप शिव शक्ति मात्र ही है। परमपिता तो ज्योति विन्दु रूप शिव-शक्ति का भी पिता रूप परमतत्त्वम् ही है ।

तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय संस्था का नाम ईश्वरीय विश्व विद्यालय है, परमेश्वरीय नहीं । इस संस्था के अभीष्ट ज्योति विन्दु आत्मा या शिव है और ज्योति विन्दु रूप ईश्वर का ही होता है । यहाँ तक तो कहने मात्र के लिये ये लोग सही हैं, मगर इन लोगों का सबसे भारी भूल-गलती, मिथ्या ज्ञानाभिमान और मिथ्याहंकार यह है कि ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा को ही ये ज्योति विन्दु रूप परमपिता परमात्मा भी मान बैठे हैं- मनवा रहे हैं। जबकि यह गलत है और ये समाज को गलत उपदेश देकर ज्योति मात्र में ही भरमा-भटका कर लटका दे रहे हैं जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि वास्तविक ज्योति विन्दु रूप आत्मा-ईश्वर-शिव का भी पिता परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् है, को भी आत्मा-शिव ही माना जाने लगता है । एक बार पुन: स्पष्ट कर दूँ कि ज्योति विन्दु आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह-नूर-सोल- स्पिरिट-शिव मात्र है परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् नहीं । परमात्मा-परमेश्वर तो ज्योतिर्विन्दु रूप शिव का भी पिता रूप है ।

इन लोगों तथा मात्र इन लोगों की ही नहीं, पूरे भू-मण्डल पर आज वर्तमान मात्र में ही नहीं- आदि-काल से ही श्रीविष्णु जी महाराज, श्रीराम जी महाराज और श्री कृष्ण जी महाराज के सिवाय प्राय: सभी समस्त धर्मोपदेशकों ने ही चाहे वे किसी भी वर्ग-समाज-सम्प्रदाय-पंथ-ग्रन्थ के ही क्यों न हों, सभी के सभी ही ने यह भारी भूल या गलती या मिथ्या ज्ञानाभिमान या मिथ्याहंकार किया था, किया है और कर भी रहे हैं कि अपने (जीवत्त्व रूप) को ही तथा सबके शरीर में रहने वाले अहँ-मैं-आइ (जीवत्त्व) को ही ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा और इसी ज्योति बिन्दु-शिव आत्मा को ही परमतत्त्वम् रूप परमात्मा; इसी ज्योति रूप शिव-ईश्वर को ही परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर; इसी ज्योति रूप ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह; इसी ज्योति (नूर) को ही अलम् रूप अल्लाहतआला; इसी ज्योति (लाइफ लाइट) को ही 'वर्ड-गॉड; इसी ज्योति विन्दु शिव को ही परमतत्त्वम् रूप भगवान्-परमपिता मानना--घोषित करना, अपने अनुयायियों और किताबों-ग्रन्थों को मनमाना लिख-लिखवा कर समस्त धर्मप्रेमी जनमानस को भी भ्रामक और गलत जानकारियाँ दे-दिवाकर धर्मप्रेमी-भगवत् प्रेमी जनों को भरमा-भटका कर परमात्मा-परमेश्वर- खुदा-गॉड-भगवान के वास्तविक परमतत्त्वम् रूप 'वर्ड-गॉड' रूप वास्तविक परमात्मा से बंचित-च्युत तो करा ही दे रहे हैं, खुद अपने ही 'स्व-रूह-सेल्फ' रूप सूक्ष्म शरीर की जानकारी -दर्शन से भी बंचित कर-करा दे रहे हैं ।

अत: इन लोगों के कथनानुसार जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं भी आत्मा ही है और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप परमात्मा-परमपुरुष भी आत्मा (ज्योति विन्दु) रूप शिव ही है, पृथक्-पृथक् तीनों ही तीन नहीं हैं बल्कि 'एक' का ही तीन नाम है, तो क्या ये लोग आत्म-ज्योति से पृथक् परमतत्त्वम् परमात्मा- परमपुरुष के पृथक् अस्तित्त्व को मिटाना नहीं चाह रहे हैं ? क्या आत्मा से भी श्रेष्ठ और पृथक् परमात्मा-परमपुरुष नहीं है तो यह मंत्र क्या कह रहा है ? क्यों नहीं देखते या इन्हें दिखायी ही नहीं देता ?

इन्द्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन: । मनसस्तु परा बुध्दिर्बुध्देरात्मा महान् पर: ॥
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुष: पर: । पुरषान्न परं किंचित्न्सा काष्ठा सा परा गति: ॥

(कठोपनिषद् 1/3/10-11)
हि इन्द्रियेभ्य: = क्योंकि इन्द्रियों से; अर्था: = शब्दादि विषय; परा:= बलवान है; च = और; अर्थेभ्य:= शब्दादि विषयों से; मन:= मन; परा:= प्रबल है; तु मनस:= और मन से भी; बुध्दि:= बुध्दि; परा= बलवती है; बुध्दे = बुध्दि से; महान् आत्मा = महान् आत्मा; महत:= महान् (आत्मा) से; परम= श्रेष्ठ-बलवती है; अव्यक्तम् = भगवान कि अव्यक्त मायाशक्ति; अव्यक्तात् = अव्यक्त माया से भी; पर:= श्रेष्ठ; पुरुष:= परमपुरुष (स्वयं परमेश्वर); पुरुषात् = परमपुरुष भगवान् से; परम् = श्रेष्ठ और बलवान्; किंचित्:= कुछ भी; न:= नहीं है; सा काष्ठा = वही सबका परम अवधि (और); सा परागति:= वही परमगति है ।
(कठोपनिषद् 1/3/10-11)

इन्द्रियों से शब्दादि विषय बलवान् है तथा शब्दादि विषयों से मन प्रबल है और मन से भी बुध्दि बलवती है । बुध्दि से महान् आत्मा है और महान् आत्मा से भी श्रेष्ठ-बलवती भगवान् की अव्यक्त मायाशक्ति है और अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ परमपुरुष-परमेश्वर हैं । परमपुरुष भगवान् से श्रेष्ठ और बलवान कुछ भी नहीं है । परमात्मा ही सब की परम अवधि और वही परमगति है। ज्योति विन्दु रूप आत्मा अथवा ज्योति विन्दु रूप शिव को ही परमात्मा-परमेश्वर-भगवान् मानने वालों को और हँऽसो ज्योति रूप आत्मा-शिव से श्रेष्ठ और कुछ नहीं मानने वालों के लिए इन मन्त्रों के अर्थ-भाव और यथार्थ स्थिति का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? यहाँ तो सभी के वास्तविक अस्तित्त्व-स्थिति को स्पष्टत: श्रेणीबध्द रूप में क्रमश:पृथक्-पृथक् बतलाते हुए जनाया गया है। इससे भी समझ में न आवे तो भगवान् परमात्मा क्या करे, आप अभागों को ? सब भगवत् कृपा ।

(नोट:-अभी तो ये ऊर्ध्वमुखी हँऽसो-ज्योति की बातें की जा रही है जो परमात्मा तो है ही नहीं, शुध्द आत्मा भी नहीं है, बल्कि जीव और आत्मा का संयुक्त रूप में ऊर्ध्वमुखी यौगिक स्थिति है। वर्तमान कालिक महात्माओं का सोऽहँ तो स्पष्ट ही पतन कारक अर्थात् पतन को जाता हुआ विनाश को ले जाने वाला है । इस पतनोन्मुखी सोऽहँ वालों की तो इसमें कोई गिनती ही नहीं है । ये उपर्युक्त बातें तो ऊर्ध्वमुखी हँऽसो-ज्योति वालों से की जा रही है ।)

ज्योति प्रधान समस्त सोऽहँ- हँऽसो-आत्मा-स्वयं ज्योति रूप शिव-शक्ति को ही परमपिता-परमात्मा-परमेश्वर-मानने-मनवाने वालों को यह जान लेना चाहिए कि ईश्वर ही परमेश्वर नहीं होता है बल्कि ईश्वरों का भी महान ईश्वर परम ईश्वर अर्थात् परमेश्वर होता है श्वेताश्वतरोपनिषद् का ही एक सत्प्रमाण गौर से देखें-
तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीडयम्॥

(श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/7)
व्याख्या-- वे परमब्रम्ह पुरुषोत्तम समस्त ईश्वरों के भी महान ईश्वर अर्थात् परमेश्वर रूप परम शासक हैं, अर्थात् ये सब ईश्वर भी उन परमेश्वर के अधीन रहकर जगत् का शासन करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के भी परम आराध्य‌ देव हैं। समस्त पतियों-रक्षकों के भी परम पति है तथा समस्त ब्रम्हाण्डों के स्वामी हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव-परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत् के सर्वश्रेष्ठ कारण है और वे सर्वरूप होकर भी सबसे सर्वथा पृथक् हैं ।

यह उपर्युक्त मन्त्र बतला रहा है कि ईश्वरों का भी परम होता है परमेश्वर। ईश्वर से पृथक् और 'परम' परमेश्वर का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा ? आत्मा से भी परम पूर्वोक्त मन्त्र में परमपुरुष को बताया गया है और उससे भी पूर्व के मन्त्रों में हँऽसो नाम ज्योति रूप आत्मा-शिव के भी परमपिता-संचालक स्वामी मुक्तिदाता परमतत्त्वम् रूप परमात्मा होते हैं। इससे स्पष्ट है कि ईश्वरीय विश्वविद्यालय वाले परमेश्वर-परमात्मा- भगवान्- भगवदवतार को क्या जाने कि क्या होता है? कैसा होता है ? ये लोग तो आत्मा-शिव तो आत्मा-शिव है जीव 'हम' के बारे में भी कुछ नहीं जानते ।

तथाकथित प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय वाले महानुभावों से मुझे यही कहना है कि....

'गीता ज्ञान श्रीकृष्ण जी ने नहीं दिया था बल्कि ज्योति विन्दु रूप परमपिता शिव परमात्मा ने दिया था' --यह उनका कथन बिल्कुल ही भ्रामक व गलत है । उनका यह भ्रम है कि शिव तो ज्योतिर्मय आत्मा है और श्रीकृष्ण जी शरीर मात्र । जबकि उन्हें यह अच्छी प्रकार से जान-समझ लेना चाहिए कि श्रीकृष्ण जी महाराज शरीर मात्र ही नहीं थे बल्कि ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा के भी पिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान् रूप परमपिता रूप परमात्मा के ही पूर्णावतार थे, साक्षात् भगवदवतार थे-- परमपिता परमात्मा-परमेश्वर ही थे। ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा उन परमतत्त्वम् रूप परमात्मा से ही उत्पन्न और उन्हीं के द्वारा संचालित होता रहता है । यह ही सत्य है । यह ही सत्य है।

प्र0 ब्र0 ईश्वरीय विश्वविद्यालय वालों का यह कथन कि गीता का ज्ञान परमपिता परमात्मा ने दिया है-- यह बात तो सही है । भ्रामकता और गलती यहाँ है कि वह परमात्मा ज्योति विन्दु रूप शिव-आत्मा ही हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हँऽसो ज्योति रूप शिव-शक्ति-आत्मा-ईश्वर के भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा के ही साक्षात् पूर्णावतार रूप श्रीकृष्ण जी हैं । पूर्वोक्त मन्त्रों से यह निर्णय हो चुका है कि हँऽसो ज्योति रूप जीवात्मा-शिव-शक्ति लाइट या दिव्य ज्योति ही परमात्मा नहीं होता है अपितु इन सभी नामधारी शब्दों के भी परमपिता रूप परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान् होता है, था और रहेगा भी। उन्हीं परमात्मा के पूर्णावतार श्रीकृष्ण जी महाराज ने गीता-ज्ञान दिये । नि:सन्देह यही सत्य है-- यही सही है--यही ही सही है ।

प्र0ब्र0 ईश्वरीय विश्वविद्यालय की सारी बातें-जानकारियाँ-कथन एवं सारा का सारा लेखन-किताबें-पत्रिकाएं ही प्राय: पूर्णतया भ्रामकता एवं गलती से युक्त हैं । इसे सद्ग्रन्थीय आधार पर गलत प्रमाणित करने की चुनौती पूर्वक घोषणा कर रहा हूँ । नि:सन्देह यह संस्था अज्ञानतामूलक घोर आडम्बर-ढोंग वाली है । इस संस्था की सारी किताबें ही भ्रामक व गलत हैं तो प्रत्येक कथन को लिखना-बताना स्थानाभाव और विस्तृतता से बचने के क्रम में असम्भव है। कोई मिलकर जान-समझ सकता है । मेरे कथन की सच्चाई की जाँच भी कर सकता है। मेरे कथन को गलत ठहराने वाले के प्रति मैं सकल आश्रमों-शिष्यों सहित समर्पण कर दूँगा । मगर गलत प्रमाणित न कर पाने पर उन्हें भी पूर्णत: आश्रमों-सेवकों सहित समर्पण करना-रहना ही पडेग़ा । जब और जहाँ चाहें मैं पूर्णत: तैयार हूँ । साँच को ऑंच कहाँ ? सब भगवत् कृपा ।

''विचार-इच्छा-प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ, अनुभव, स्मृति तथा संस्कार ये आत्मा के ही लक्षण है । आत्मा ही सत्य-असत्य का विचार करती, आनन्द के लिए इच्छा करती है । उसके लिए पुरुषार्थ करती है, फिर दु:ख-सुख या आनन्द की प्राप्ति का अनुभव आदि करती है । अत: मन और बुध्दि आत्मा से अलग नहीं, ये प्राकृतिक नहीं है, बल्कि स्वयं आत्मा ही की योग्यताएँ हैं ।'
(प्र0 ब्र0 ई0 वि0 का ईश्वरीय ज्ञान का 'साप्ताहिक पाठयक्रम पृष्ठ 25 )
यह उपर्युक्त कथन सरासर (पूर्णत:) गलत है-- नाजानकारी और नासमझदारीवश मिथ्याज्ञान का परिचायक है । सही यह है कि ये उपर्युक्त सारे लक्षण आत्मा के नहीं, बल्कि जीव के हैं, जीव के ही हैं। मन, बुध्दि, संस्कार, विचार, अनुभव, आनन्द से आदि ये सब जीव से ही सम्बन्धिात हैं--इनका आत्मा से या आत्मा का इनसे कोई मतलब नहीं । आत्मा तो निराकार-निर्विकार मन-बुध्दि- विचार- अनुभव-आनन्द से परे होती है। आत्मा-शिवशक्ति तो ज्योति रूप होती है-- ज्योति मात्र में ये सब लक्षण कल्पना के लिए भी नहीं हो सकते-- ऐसा कथन बिल्कुल ही अज्ञानता अथवा मिथ्याज्ञान का लक्षण है । हाँ ! ये सब लक्षण सूक्ष्म शरीर (सेप्टल बॉडी) रूप जीव- रूह-सेल्फ-स्व-अहं के हैं । विशेष जानकारी हेतु मुझसे मिल सकते हैं । 'ईश्वरीय ज्ञान का साप्ताहिक पाठयक्रम' के दूसरे दिन में पृष्ठ संख्या 30-31-32 से उध्दृत्
उदाहरणार्थ--

परमात्मा के बारे में अनेक मत क्यों ?

ब्रम्हाकुमारी:- 
तो परमात्मा के बारे में अनेक मतों का होना यह सिध्द करता है कि लोग अपने आत्मा के पिता को नहीं जानते । तभी तो आज बहुत से लोग कहते हैं कि परमात्मा का कोई रूप ही नहीं है। आप किंचित् विचार कीजिए कि रूप के बिना भला कोई चीज हो कैसे सकती है ? परमात्मा के लिए तो लोग कहते है--''ऍंखिया प्रभु दर्शन की प्यासी' अथवा हे प्रभो? अपने दर्शन दे दो।'' अत: परमात्मा का कोई रूप ही नहीं है, तब तो परमात्मा से मिलन भी नहीं हो सकता? परन्तु सोचिए, क्या हम जिसे अपना परमपिता कहते हैं, उससे मिल भी नहीं सकते ? परमात्मा से जो इतना प्यार करते हैं, उसे इतना पुकारते हैं, उसके लिए इतनी साधनाएँ करते हैं, वे किसलिए ? जिसका कोई रूप ही नहीं है अर्थात् जो चीज ही नहीं है, उसके लिए कोशिश ही क्यों करते हैं ? स्पष्ट है कि परमात्मा का कोई रूप है अवश्य, परन्तु आज मनुष्य के पास ज्ञान-चक्षु के न होने के कारण वह उसे देख नहीं सकता ।

उन्हीं के अनुसार-- मान लीजिए, आप किसी मनुष्य से पूछते हैं कि तुम किस चीज को खोज रहे हो ? तो वह कहता है--''उस वस्तु का कोई रूप नहीं है।'' फिर आप पूछते हैं कि वह वस्तु कहाँ है, वह कैसी है और उसके गुण क्या हैं ? तो वह कहता है कि-- 'वह तो निर्गुण है' तो आप उसे तुरन्त कहेंगे कि-- 'फिर तुम ढूँढ क्या रहे हो, खाक् ? जिसका न नाम है, न रूप है, न गुण है, और न पहचान तो उसके पीछे तुम अपना माथा क्यों खराब कर रहे हो?'

क्या परमपिता परमात्मा का कोई रूप है ? यदि हाँ, तो कैसा

सभी लोग कहते हैं कि परमात्मा एक लाईट है, एक ज्योति अथवा एक नूर है परन्तु वे यह नहीं जानते कि उस लाइट का रूप क्या है? तो आज हम अपने अनुभव के आधार पर आप को यह बताना चाहते हैं जैसे आत्मा एक ज्योतिर्विन्दु है, वैसे ही आत्माओं का पिता अर्थात् परम-आत्मा भी ज्योति विन्दु ही है। हाँ ! आत्मा और परमात्मा के गुणों में अन्तर है । परमात्मा सदा एकरस, शान्ति का सागर, आनन्द का सागर और प्रेम का सागर है और जन्म-मरण तथा दु:ख-सुख से न्यारा है। परन्तु आत्मा जन्म-मरण से न्यारा तथा दु:ख-सुख के चक्कर में आती है । आप देखेंगे कि सभी धर्म वालों के यहाँ परमात्मा के इस ज्योतिर्मय रूप की यादगार किसी न किसी नाम से मौजूद है । ये उपर्युक्त मत प्र0 ब्र0 कु0 वालों के किताब से है ।

सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का मत

प्राय: ऐसा देखा जाता है कि सामान्यतया कोई व्यक्ति-उपदेशक अथवा धर्मोपदेशक भी दूसरे को राय-परामर्श-उपदेश आदि तो खूब देते हैं, मगर स्वयं अपने पर कम से कम अनिवार्यत: आवश्यक बातों पर भी ध्यान नहीं देते-- गौर नहीं करते हैं कि जो बात-उपदेश वे दूसरे को कर-दे रहे हैं कि ''परमात्मा का रूप होता है, मगर ज्ञान चक्षु नहीं होने के कारण वे परमपिता परमात्मा के रूप को नहीं देख पाते है'' तो मैं यह पूछूँ कि क्या प्र0ब्र0कु0ई0वि0 वालों के पास ज्ञान-चक्षु हैं ? यदि वे कहते हैं कि है-- तो बिल्कुल ही झूठ बोलते हैं, क्योंकि वे लोग (प्र0ब्र0कु0ई0वि0 वाले) यह भी नहीं जानते है कि-- 
1 . मन-बुध्दि-संस्कार को भी आत्मा से अभिन्न--आत्मा ही मानना उसकी घोर अज्ञानता है । सच्चाई यह है कि ये तीनों ही जीव से सम्बन्धित होता हैं, आत्मा से सम्बन्धित नहीं । 
2 . कार और ड्राइवर जैसे ही काया (शरीर) और आत्मा कहना भी अज्ञानता ही है क्योंकि कार रूप शरीर है तो ड्राइवर रूप आत्मा नहीं होती बल्कि जीव होता है । इस बात से स्पष्ट होता है कि उन्हें जीव के सम्बन्धा में भी जानकारी बिल्कुल ही नहीं है क्योंकि जीव के समस्त कार्य लक्षणों को वे लोग आत्मा का कार्य और लक्षण मानते कहते हैं जो सरासर झूठ-गलत और भ्रामक भी तो है। 
3 . उनके कथनानुसार आत्मा एक चेतन वस्तु है । आत्मा को चेतन इसी कारण कहा जाता है कि वह सोच-विचार कर सकती है, दु:ख-सुख का अनुभव कर सकती है और अच्छा या बुरा बनने का पुरुषार्थ अथवा कर्म कर सकती है। अत: आत्मा मन, बुध्दि और संस्कारों से अगल नहीं है ।

मेरे अनुसार ये उपर्युक्त सोच-विचार कर्म करना आदि लक्षण कार्य आत्मा के नहीं अपितु जीव के ही हैं । आत्मा तो निर्विकार-निर्दोष व सोच-विचार से बिल्कुल ही रहित होती है। सच्चाई यह है कि यह (प्र0ब्र0कु0ई0वि0) संस्था जितनी ही घोर अज्ञानी है, उतनी ही मिथ्या-ज्ञानाभिमानी भी। नि:सन्देह बार-बार ही कह रहा हूँ-- हजारों बार कह रहा हूँ कि यह संस्था घोर अज्ञानी और भ्रामकता की शिकार है जिसको परमात्मा के विषय में कोई कुछ भी जानकारी तो है ही नहीं, जीव के विषय में भी कोई भी जानकारी नहीं है, क्योंकि जीव की जानकारी होती तो जीव का ही सारा लक्षण-वर्णन आत्मा पर साट करके वर्णित नहीं करते। क्योंकि इसको इसमें 1 . परमात्मा, 2 . आत्मा, 3 . जीव, 4 . बुध्दि, 5 . मन, 6 . संस्कार, 7 . ज्ञान व ज्ञान चक्षु, 8 . योग व दिव्य दृष्टि, 9 . स्वाध्याय व सूक्ष्म दृष्टि, 10 . अवतार, 11 . 84 लाख योनिया, 12 . गीता ज्ञान दाता कौन? 13 . गीता ज्ञान क्या है ? 14 . क्या राम-कृष्ण वास्तव में पूर्णावतारी थे या देवता मात्र ? 15 . जन्म-मृत्यु-मुक्ति क्या है ? 16 . स्वर्ग-परमधाम क्या है ? 17. जीव एवं आत्मा (ईश्वर) और परमात्मा (परमेश्वर) के नाम-रूप- स्थान-लक्षण-जानकारी-दर्शन-प्राप्ति-पहचान- कार्य-मुक्ति- अमरता-जीवन की रहस्यात्मक बातें आदि-आदि--में से किसी की भी कोई जानकारी नहीं है, नहीं है! कदापि नहीं है !! इन उपर्युक्त के सम्बन्ध में उनकी किताबों में जो जानकारियाँ है, सरासर ही अज्ञानता मूलक भ्रामकता पर आधारित हैं और बिल्कुल ही मिथ्या है । गलत है । इस भ्रामकता और गलत-मिथ्यात्त्व को सद्ग्रन्थीय और आवश्यकता पड़ने पर प्रायौगिक (प्रैक्टिकली) आधार पर सत्प्रमाणों सहित प्रमाणित करने की चुनौतीपूर्ण घोषणा कर रहा हूँ । उन लोगों में क्षमता (जानकारी-ज्ञान) हो तो मेरी चुनौती को गलत प्रमाणित करने की चुनौती किसी खुले मंच से पत्रकारों की उपस्थिति में दें ।

यह प्र0 ब्र0कु0ई0 वि0 संस्था घोर भगवद्रोही -- सत्यद्रोही संस्था है । ज्योति आत्मा-शिव के भी पिता जो बिल्कुल ही पृथक् और परमतत्त्वम् है, को ही नकार रही है और नकारने वाली सत्य विरोधी विष जनमानस में घोल-घोलवा रही है । सच्चाई यह है कि न तो मैं किसी का विराधी हूँ और न तो कोई मेरा दुश्मन ही है । जो बातें हो रही है ईमान से सत्य तथ्य पर आधारित है जो होना ही चाहिए । सब भगवत् कृपा।
------------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस










श्रीराम शर्मा और उनका तथाकथित गायत्री परिवार 

 

  श्रीराम शर्मा 

श्रीराम शर्मा और उनका तथाकथित गायत्री परिवार
समाज में ॐ देव की सांस्कृतिक मान्यता को स्थापित करने के बजाय इस पुलिंग प्रधान ॐ देव को विस्थापित कर-हटाकर स्त्रीलिंग प्रधान सरासर झूठी और गलत तथाकथित गायत्री देवी को स्थित-स्थापित कर देव संस्कृति संस्थापन के नाम पर देव विस्थापन रूप देव द्रोहिता रूप आसुरी संस्कृति संस्थापन करने-कराने वाले श्रीराम शर्मा (मृत) और तथाकथित गायत्री परिवार-प्रज्ञा परिवार में लग-बझकर इस प्रकार का आसुरी कुकृत्य का प्रचार-प्रसार क्यों किया कराया जा रहा है । जनमानस को क्या इस आसुरी कुकृत्य को रोकना नहीं चाहिये ? अवश्य ही रोकना चाहिये । रोकना ही चाहिये। 
श्रीराम शर्मा और उनके पारिवारिक जनों के महत्वाकांक्षा की पूर्ति और निकृष्ट स्वार्थ लोलुपता की पूर्ति का शिकार धर्म प्रेमी भगवद् जिज्ञासु जन होते जा रहे है और अपने धन-धरम दोनों को इन सबों के दोहन-शोषण का शिकार होते हुये दोनों (धन-धरम) को इन सबों के प्रति खोते जा रहे है । इनके धन-धरम दोनों की रक्षा हेतु मैं सन्त ज्ञानेश्वर इन सबों के आसुरी कुकृत्य का पर्दाफास करता हूँ और परमसत्य प्रधान सर्वोच्चता और सम्पूर्णता लक्षण वाले परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवततत्त्वम् और उनकी प्राप्ति परिचय-पहचान कराने वाले तत्त्वज्ञान रूप भगवद् ज्ञान रूप सत्यज्ञान का संस्थापन कर रहा हूँ तो इस आसुरी समाज द्वारा निन्दक-आलोचक तो कहलाता ही हूँ, उदारवादी समाज भी जब मुझे निन्दक-आलोचक ही कहेगा तो 'सत्य सनातन धर्म' का उद्धोषक- संस्थापक और संरक्षक कौन कहलायेगा? इन तथाकथित गायत्री देवी मान्यता वाले तथाकथित गायत्री देवी वालों के देव संस्थापन संस्कृति के नाम पर देव विस्थापन रूप देव द्रोहिता रूप आसुरी संस्कृति संस्थापन का पर्दाफास-भण्डाफोड करता हुआ इस काल्पनिक और झूठी तथाकथित गायत्री देवी को विस्थापित कर 'ॐ देव' को पुनर्संस्थापन रूप मेरे देव संरक्षण रूप कार्यों में सेवा-सहयोग कर इस देव संस्कृति-संरक्षक रूप मेरे परमपुनीत कार्य में सहभागीदार बनकर यशकीर्ति का भागीदार नहीं बनना चाहिये? अवश्य ही बनना चाहिये । किसी के निन्दक-आलोचक कहने-कहलाने के बावजूद भी मैं सन्त ज्ञानेश्वर अपने सकल संकल्पित-समर्पित समाज के साथ 'धर्म-धर्मात्मा-धरती' की रक्षा और देव संस्कृति संरक्षक वाले परम पुनीत कर्तव्य को करता रहूँगा-- करता ही रहूँगा। मुझे अपने इस परमपुनीत कर्तव्य से दुनिया की कोई भी आसुरी शक्ति-ताकत रोक नहीं सकती क्योंकि पूर्णत: भगवत् कृपा मेरे साथ है क्योंकि यह कार्यक्रम पूर्णत: खुदा-गॉड-भगवान का ही है और सीधे वही ही यह कर-करवा भी रहा है । 

यह देखिए तथाकथित गायत्री परिवार का पाखण्ड
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बंधुओं पहले आप मंत्र (ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्) की तुलनात्मक रूप से नीचे दी गई व्याख्या को देखें, बातें स्पष्ट हो जाएँगी। मात्र शब्दार्थ पर थोड़ा विचार करें-
श्रीराम शर्मा द्वारा दिया गया मंत्र का अर्थ:
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1. ॐ = भारतीय धर्म; 
2. भूः = आत्म विश्वास; 
3. भुवः = कर्मयोग; 
4. स्वः = स्थिरता; 
5. तत् = जीवन विज्ञान; सवितु=शक्ति संचय; वरेण्यं=श्रेष्ठता;
6. भर्गो=निर्मलता; देवस्य=दिव्य दृष्टि; 
7. धीमहि = सदगुण; 
8. धियो=विवेक; योनः=संयम;
9. प्रचोदयात्=सेवा।
नोट – श्रीराम शर्मा द्वारा लिखित ‘गायत्री महाविज्ञान’ (प्रथम भाग) के पृष्ठ संख्या – 133 से उपर्युक्त उद्धृत। 

सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस द्वारा उपर्युक्त मन्त्र का दिया गया अर्थ :
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1. ॐ = ब्रम्हा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं का संयुक्त रूप से बोध कराने वाला संकेत; 
भूर्भुवः स्वः = तीनों देवों के अलग-अलग वास स्थान का संकेत है; 
2. भूः =(श्री ब्रम्हा जी का); 
3. भुवः =(श्री विष्णु जी का);
4. स्वः =(श्री महेश जी का); 
5. तत्सवितुर्वरेण्यं = सूर्य द्वारा वरणीय अथवा सूर्य का भी उपास्य देव रूप उस; 
6. भर्गो देवस्य = तेजस्वरूप देव का; 
7. धीमहि = ध्यान करता हूँ;
8. धियो = बुद्धि; यो = जिससे; नः = हमारी; (जिससे हमारी बुद्धि) 
9. प्रचोदयात् = शुद्ध रहे या सत्कर्म के प्रति उत्प्रेरित रहे।

उपर्युक्त को देखकर आप स्वयं निर्णय लें की क्या श्रीराम शर्मा द्वारा दिया गया उपर्युक्त शब्दार्थ-भावार्थ सही है ? क्या शब्दों का अर्थ गलत नहीं है ? इस मंत्र के अन्तर्गत किस शब्द का अर्थ ‘गायत्री’ है ? जरा सोचिए, कि जब उपर्युक्त मंत्र के संस्थापक व प्रचारक श्रीराम शर्मा ही उसका सही अर्थभाव नहीं जानते तब वे समाज का क्या सुधार करेंगे ? आखिर गायत्री परिवार जनमानस में भ्रम व भटकाव क्यों पैदा कर रहा है ?

देव मंत्र गायत्री छन्द में वर्णित, गायत्री कोई मंत्र नहीं, कोई देवी नहीं।
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गायत्री कोई देवी तो है ही नहीं, कोई मन्त्र भी नहीं है । फिर गायत्री महाविज्ञान होने का सवाल ही कहाँ? गायत्री संस्कृत-व्याकरण के अन्तर्गत 24 मात्राओं वाला एक छन्द मात्र है । चूँकि यह छन्द ज्ञेय यानी सुन्दर लय-स्वर में गाया जाने वाला है, इसलिये छन्द के प्रकारों में इस गायत्री छन्द का विशेष महत्व है-- विशेष मान्यता है । प्रारम्भ में ॐ देव के प्राप्ति और मांग के पूर्ति हेतु जब लिपिबद्ध किया गया तो यह मन्त्रवित् लिपिबद्धता 24 मात्राओं में जाकर पूरी हो गयी अर्थात् यह ॐ देव मन्त्र गायत्री छन्द में लिपिबद्ध हो गया, यानी इस मन्त्र का छन्द तो गायत्री हुआ मगर इसका अभीष्ट ॐ देव हुआ । पहले-पहल मन्त्र को देखा जाय---
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।
जब आप सभी इस मन्त्र की वास्तविकता को जानने-समझने-देखने-परखने चलेंगे तो मिलेगा कि यह मन्त्र त्रिपदी है यानी तीन पदों -- तीन भागों वाला है । पहले पद या भाग में 'ॐ भूर्भुव: स्व:' अर्थात् ॐ जो ब्रम्हा-विष्णु-महेश तीनों का ही सम्मिलित संयुक्त सांकेतिक नाम है और भू: ब्रम्हा का, भुव: विष्णु का और स्व: महेश का वास स्थान यानी पता रूप स्थान है। दूसरा पद-भाग 'तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि' का अर्थ भाव है कि उस सूर्य का भी वरणीय (उपास्य) तेजस्वरूप देव का ध्यान करता हू¡ यानी इस दूसरे पद-भाग में मन्त्र के अभीष्ट उपास्य देव का रूप पहचान बताया गया है और तीसरे पद-भाग 'धियो यो न: प्रचोदयात्' का अर्थ भाव है कि अपने उपास्य देव जिसका ध्यान करता हू¡, कहा गया है, से मांग किया गया है कि जिससे मेरी बुध्दि (सत्य के प्रति-- सत्कर्म के प्रति सदा ही) उत्प्रेरित रहे ।
इस मन्त्र में किसी भी शब्द का अर्थ गायत्री देवी नहीं और गायत्री मन्त्र नहीं है । मन्त्र का अभीष्ट कोई स्त्रीलिंग देवी नहीं है बल्कि 'देवस्य' स्पष्टत: पुलिंग 'देव का' अर्थ भाव है । जब मन्त्र का अभीष्ट पुलिंग सूचक स्पष्टत: ॐ देव है फिर ये स्त्रीलिंग देवी कहाँ से आ गयी? क्या गायत्री देवी पूर्णत: काल्पनिक और झूठी नही हुई ? इस देव मन्त्र को गायत्री कहना भी झूठा और गलत नहीं हुआ ? आप सब इस सच्चाई को जानने-समझने और अपनाने का प्रयास क्यों नहीं करते ?
अजीब आश्चर्य की बात है कि संस्कृत भाषा पढ़ने-पढ़ाने वाले आचार्य पंडित संस्कृत के विद्वानगण भी 'लकीर के फकीर' बनकर गायत्री देवी और गायत्री मन्त्र कहने-लिखने और पढ़ने-पूजने ये लगे है। । प्राय: पंडित जनों के क्या, योगीजन भी इस देव-मन्त्र को गायत्री मन्त्र ही लिखने-पढ़ने-कहने-सुनने में लगे लगाये हैं । क्या इनको इतना भी नहीं सोचना चाहिये? क्या इन्हें इतना भी जानने-समझने की आवश्यकता महसूस नहीं होती कि हमारा अभीष्ट उपास्य तथाकथित स्त्रीलिंग गायत्री देवी है या पुलिंग सूचक यथार्थत: ॐ देव ? मन्त्र तथाकथित गायत्री का है या यथार्थत: ॐ देव का ? इतना भी जानने-समझने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई ।

देव द्रोहिता रूप तथाकथित गायत्री प्रचार से रक्षा हेतु आहवान
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सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं। आजकल एक घोर ढोंगी-पाखण्डी व्यक्ति और उसका समाज तथाकथित गायत्री के प्रचार-प्रसार में समाज के धन और धर्मभाव का शोषण करते हुये बेहाया पौध की तरह फैलने-फैलाने में बड़े तेजी से लगा हुआ है । वास्तविकता यह है कि उन सबों को तथाकथित गायत्री मन्त्र का शब्दार्थ भी, मालूम नहीं है। वे सब ॐ देव मन्त्र “ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्!'' को गायत्री छन्द मात्र में उद्धृत होने के कारण तथाकथित गायत्री मन्त्र, तथाकथित गायत्री देवी, तथाकथित गायत्री परिवार आदि-आदि को काल्पनिक रूप से पैदा करके (हालाँकि उन्हीं सबों के तरह से ही पूर्व में भी कुछ ने ऐसा ही किया था जिसको बताकर) और ॐ देव को विस्थापित करके उसके स्थान पर काल्पनिक देवी को स्थापित कर उसे गायत्री नाम दे रखा है । आप सब मेरी इन दो-एक बातों पर जरा ध्यान दें कि.........
गायत्री छन्द मात्र में उद्धृत होने के नाते ॐ देव मन्त्र के अभीष्ट ॐ देव को समाप्त कर उनके स्थान पर काल्पनिक देवी को स्थापित कर प्रचारित करना-कराना क्या देव द्रोहिता नहीं है? असुरता नहीं है ? क्या यह मन्त्र देवी (स्त्रीलिंग) प्रधान है या 'भर्गोदेवस्य (पुलिंग) प्रधान? जब यह मन्त्र ॐ देव (पुलिंग) प्रधान है तब यह देवी (स्त्री लिंग) कहाँ से आ गयी ? क्या प्यार पाने के लिये पिता जी को माता जी कहकर बुलाया जाय और उनके फोटो-चित्र को स्त्री रूपा बना दिया जाय ? यही आप सबकी मान्यता है ? पिता जी के नाम-रूप के जगह पर काल्पनिक कोई स्त्री रूपा को पिताजी स्वीकार कर लिया जाय ? और वास्तविक पिता जी को हटा दिया जाय ? उन्हें समाप्त कर दिया जाय ? यही 'देव संस्कृति' संस्थापन कहलायेगा जिसमें ॐ देव को ही समाप्त करके उसके जगह पर काल्पनिक देवी को स्थापित कर दिया जाय ? क्या यह देव द्रोहिता नहीं है? नि:संदेह यही देव द्रोहिता और यही असुरता भी है । क्या कोई भी मेरी इन बातों का समुचित समाधान देगा ?
सच्चाई और अपनत्व हेतु आप से अनुरोध है कि आप इस देव-द्रोहिता रूप असुरता से बचकर मन्त्र के वास्तविक मान्यता को (ॐ देव मन्त्र-नाम और ॐ देव रूप भर्गो देवस्य' को) महत्व दें, न कि बिल्कुल ही मिथ्यात्व पर आधारित काल्पनिक तथाकथित गायत्री नाम-रूप मन्त्र और देवी को । सच्चाई जानने के लिए उन्हीं लोगों जैसे पूर्व के ऋषि-महर्षियों का कथन अथवा कुछेक ग्रन्थों में आये हुये कुछेक उध्दरण मात्र पर आश्रित रहना पर्याप्त और उचित नहीं है । बुध्दिमानी इसमें नहीं कि कोई कुछ भी कहे तो आँख बन्द करके मान लिया जाय। मन्त्र के अर्थ-भाव और अभीष्ट को स्वयं भी जानें-देखें कि स्वयं इस मन्त्र का ईष्ट-अभीष्ट कौन-है-देव (पुलिंग) या देवी (स्त्रीलिंग)?
चन्दा के नाम पर अपने मिथ्या महत्वाकांक्षा पूर्ति हेतु अपने अनुयायियों से भीख मँगवा-मँगवा कर और नौकरी के रूप में उनको कमीशन देकर अधिकाधिक धन उगाही करने मात्र के लिये ही तथाकथित धर्म नाम आयोजन आयोजित करना क्या जनता और जनमानस के धन और धर्म भाव का शोषण करना नहीं है ? ऐसे शोषण से जनता और जनमानस को नि:संदेह बचाने के लिये, सही और समुचित लगे तो मेरे अभियान में, सद्भाव के साथ लगकर आप यश-कीर्ति के भागीदार बनें और ऐसे आसुरी दुष्प्रचार का भण्डाफोड़ कर जनमानस में इस सच्चाई को रखकर उनके शोषण से उनकी रक्षा करने में अपने को लगें-लगावें । सब भगवद् कृपा ।
----------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस








जय गुरुदेव और पंचनाम

 

जयगुरु देव 
 तथाकथित भगवानों की भीड़ में एक भगवान् ऐसे भी हैं जिन्हें कि परमात्मा-परमेश्वर और उनके तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान का तो लेशमात्र भी कुछ अता ही पता नहीं, आत्मा-ईश्वर और उनकी जानकारी-प्राप्ति से सम्बन्धित योग-साधना अथवा अध्यात्म की भी कोई जानकारी नहीं। यहां तक कि जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं और इसकी जानकारी-दर्शन प्राप्ति से सम्बन्धित स्वाध्याय की भी कोई जानकारी नहीं है । इतना ही नहीं, यहां एक बात और भी जानने का प्रयास करें कि इन्हें मन्त्र का भी अर्थ-भाव पता नहीं है कि मन्त्र कैसा होता है, किसलिये होता है, मन्त्र जाप का ढंग क्या है, अभीष्ट और अभीष्ट का मन्त्र एक का और एक होना चाहिए अथवा पांच आदि कुछ भी पता नहीं । ये तथाकथित भगवान जी, तथाकथित जयगुरुदेव महाशय जी हैं जो अपना नाम तो सन्त तुलसीदास बताते हैं ।
       किसी भी तथाकथित सन्त-महात्मा-गुरु-सद्गुरु का खिलाफत अथवा निन्दा-आलोचना करने-लिखने का न तो मेरा आचरण-स्वाभाव है और न तो शौक ही । मगर असत्य-अधर्म विनाशक और सत्य-धर्म संस्थापक होने-रहने के कारण जहाँ कहीं भी सिध्दान्तत: और व्यवहार में भी असत्य-अधर्म तथा जनमानस के बीच धोखा-धड़ी, छल-कपट, धन और धरम भाव का दोहन-शोषण होने लगता है अथवा किया-कराया जाना शुरु हो जाता है, तब वहां पर ऐसा करने वाले ढ़ोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन- धर्मोपदेशकों के वास्तविकता को जनमानस के समक्ष रखना ही पड़ता है । यहां पर भी सत्यता-वास्तविकता के आधार पर ही जनकल्याणार्थ तथाकथित जयगुरुदेव उर्फ सन्त तुलसीदास की वास्तविकता भी जनमानस के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, रखा जा रहा है।
    हम यह महसूस कर रहे हैं कि मेरे उपर्युक्त कथनों से तथाकथित जयगुरुदेव के शिष्यों-अनुयायिओं को गुरु में आस्था-निष्ठा और गुरु भक्ति के चलते थोड़ा-बहुत दु:ख क्लेश अवश्य ही मिलेगा, मगर उन शिष्यों-अनुयायी बन्धुओं से मेरा साग्रह अनुरोध है कि आस्था-निष्ठा मात्र गुरु में नहीं अपितु खुदा-गॉड-भगवान् में होनी-रहनी चाहिये । भक्ति भी मात्र गुरु की नहीं अपितु भगवान् की ही होनी चाहिए । ऐसा कहने का अर्थ यह कदापि नहीं लगना चाहिए । ऐसा कहने का अर्थ यह कदापि नहीं लगाना चाहिये कि मैं 'गुरु द्रोही' हूं क्योंकि किसी भी जिज्ञासु भक्त का लक्ष्य-उद्देश्य गुरु खोजना-पाना नहीं होता बल्कि 'ज्ञान और भगवान्' खोजना-पाना होता है। गुरु तथाकथित सद्गुरु तो एक समय में ही हजारों हजार की संख्या में होते हैं और सभी तथाकथित गुरु-सद्गुरु ही अपने शिष्यों-अनुयायिओं में अपने को परमात्मा-परमेश्वर खुदा-गॉड-भगवान् और भगवान् का अवतार ही घोषित करते-कराते रहते हैं जबकि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह खुदा-गॉड-भगवान् तो सदा-सर्वदा से ही केवल एकमेव 'एक' ही था, है और रहने वाला भी होता है । फिर तो इन हजारों-हजार तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन रूपी तथाकथित भगवानों में से कोई भी एकमेव 'एक' ही तो सही होगा, शेष सभी तो झूठ ही तो होंगे।
    अब आप बन्धुजन थोड़ा भी तो सोचने-विचारने का कष्ट करें कि उपर्युक्त पैरा की बातें क्या बिल्कुल ही सत्य पर आधारित नहीं हैं ? क्या वर्तमान में भी एक ही समय में ही हजारों-हजार तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन रूप तथाकथित भगवान् जी लोग प्रकट नहीं हो गये हैं? पुन: एक बार आप सबसे पूछूं कि इन हजारों-हजार तथाकथित गुरुजन-सद्गुरुजन रूप तथाकथित भगवान् जी लोगों को-- सभी को ही भगवान् और भगवदवतार की मान्यता दे दिया जाय ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!! ऐसा सम्भव भी नहीं है क्योंकि खुदा-गॉड-भगवान् सदा-सर्वदा से 'एक' ही था, 'एक' ही है और सदा-सर्वदा के लिये 'एक' ही रहने वाला भी होता है ।
    गुरु-सद्गुरु बन-बना जाना तो बहुत ही आसान है, मगर गुरुत्त्व और सद्गुरुत्त्व के कर्तव्य का पालन करना उतना आसान नहीं होता जितना कि बनने वाले गुरु-सद्गुरुजी लोग मान बैठे हैं ।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस




आशाराम बापू 

 

  आशाराम बापू 

आशाराम 'अज्ञानी'और मूढ़ भी
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गीता बुध्दियोग मात्र नहीं अपितु एक सम्पूर्ण सद्ग्रन्थ है !
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गीता परमब्रह्म-परमेश्वर के पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्ण जी का अशेष अथवा सम्पूर्ण (गीता 7/2) ज्ञान वाला एक सम्पूर्ण ज्ञान ग्रन्थ है जिसमें 'कर्म' एवं 'योग या अध्यात्म' और 'ज्ञान' (गीता 7/29) तीनों की ही जानकारी-प्रयोग-उपलब्धि और व्यवहार वाला संक्षिप्तता में सम्पूर्णता भरा एक सर्वश्रेष्ठ सद्ग्रन्थ है जिसमें जीव के साक्षात् दर्शन (गीता 15/10) एवं आत्मा-ईश्वर ब्रह्म-शिव का साक्षात् दर्शन (गीता 11/8) और परमात्मा-परमेश्वर के साक्षात् दर्शन व आवागमन अथवा जन्म-मृत्यु से मुक्ति और भगवत् प्राप्ति (4/9; 4/35 11/54/18) साथ ही साथ सभी प्रकार के संकटों एवं पाप-कुकर्मों से मुक्ति (18/58) शरणागत् और आज्ञापालन में रहने पर शोक रहित बनाते हुए पाप-मुक्ति देने की गारण्टी (18/66) आदि-आदि सम्पूर्ण शोक-सन्ताप हरण और मुक्ति-अमरता प्रदान करने वाला बशर्ते कि भगवत् प्राप्ति के साथ-साथ ही ईमान से संयमपूर्वक सेवाभाव सहित भगवद् शरण में रहा-चला जाय तो; एक सम्पूर्ण ज्ञान ग्रन्थ है । 

समस्त लक्षणों वाले कर्म, योग और ज्ञान तीनों की जानकारियाँ-प्रयोग और व्यावहारिक सम्पूर्ण उपलब्धियों को प्राप्त कराने वाले सद्ग्रन्थ रूप 'गीता' के बारे में आशाराम द्वारा यह कहना कि -- कुछ लोग कहते हैं कि गीता निष्काम कर्म योग का समावेश है और कुछ लोग कहते हैं कि गीता पूर्ण योग है किन्तु यानी आशाराम द्वारा गीता बुध्दियोग है । यह बुध्दि के साथ योग कराने वाला सद्ग्रन्थ है । -- ऐसा कहना घोर अज्ञानता और मूढ़ता से युक्त है क्योंकि गीता को मात्र बुध्दि से जोड़ देने को घोर अज्ञानता और मूढ़ता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ? जबकि गीता की वास्तविकता सम्पूर्ण कर्म (शरीर-संसार के मध्य वाला), सम्पूर्ण योग-अध्यात्म (जीव और आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव के मध्य वाला) और परमब्रह्म-परमेश्वर के ज्ञान यानी सम्पूर्ण ज्ञान रूप तत्तवज्ञान रूप मोक्ष देने वाले भगवान् वाला ज्ञान ग्रन्थ 'गीता' है । आशाराम का यह कथन ऐसा ही है जैसे जनमानस को राष्ट्रपति महोदय को जनाने-मिलाने के सम्बन्ध में उनके स्थान पर किसी ग्राम सभापति का गुण-गान गाया जाय और यह कहा जाय कि यह ग्राम सभापति ही राष्ट्रपति है । क्या इससे जाहिर नहीं होता कि ऐसा जनाने वाला राष्ट्रपति के विषय में कुछ भी नहीं जानता ? क्या गीता मात्र बुध्दि से ही जोड़ने वाली है ? क्या गीता जीव एवं आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव और परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म- ख़ुदा-गॉड-भगवान् तीनों को ही यर्थाथत: पृथक्-पृथक् साक्षात्-दिखाने वाले तत्तवज्ञान वाला सद्ग्रन्थ नही है ? 

परमाणु से परमेश्वर तक जिसके अन्तर्गत सारा ब्रह्माण्ड ही आ जाता है, की यथार्थत: जानकारी, साक्षात् दर्शन और उपलब्धियों को प्राप्त कराने वाले अशेष ज्ञान रूप सम्पूर्ण ज्ञान वाले सद्ग्रन्थ गीता को बुध्दि से योग कराने वाला ग्रन्थ कहना श्रीमद्भगवद्गीता जैसे सर्वश्रेष्ठ-सर्वोत्ताम और पवित्रतम् सद्ग्रन्थ को मात्र बुध्दि से मिलन कराने वाला ग्रन्थ कहकर श्रीमद्भगवद्गीता को सम्मानित किया जा रहा है या घोर अपमानित ? मेरी समझ में तो आशाराम ने अपनी घोर अज्ञानता और मूढ़ता का परिचय देते हुए सम्पूर्णता लिए हुए पवित्रतम् सद्ग्रन्थ गीता के प्रति धर्मभाव भगवद् जिज्ञासु जनता को दिग्भ्रमित करना और उसकी महत्ता को अपमानित करना हुआ । आशाराम मात्र एक कथावाचक है । वह क्या जाने कि गीता और भगवान् श्रीकृष्ण जी क्या हैं ? गीता और भगवान् श्रीकृष्ण जी को जानने के लिए उस तत्तवज्ञान की जानकारी अनिवार्य है जिसमें संसार--शरीर--जीव--आत्मा-ईश्वर शिव और परमात्मा-परमेश्वर-ख़ुदा-गॉड-भगवान --- इन पाँचों की ही पृथक्-पृथक् यथार्थत: जानकारियाँ साक्षात् दर्शन और बात-चीत सहित स्पष्टत: परिचय-पहचान समाहित रहता है ।

यह सत्य ही है कि तत्तवज्ञान रूप भगवद् ज्ञान रूप सत्यज्ञान के बिना भगवान् श्रीकृष्ण जी को देखना-पाना तो दूर रहा, जाना भी नहीं जा सकता है। ऐसे ही तत्तवज्ञान के बिना दुनिया के किसी भी पन्थ के किसी भी ग्रन्थ में स्थित सारगर्भित रहस्य जो जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं तथा इसकी जानकारी और दर्शन कराने वाला स्वाध्याय (सेल्फ रियलाइजेशन) एवं आत्मा-ईश्वर- ब्रह्म-नूर-सोल-स्पिरिट-सोऽहँ-हँसो दिव्य ज्योति रूप शिव तथा इसकी जानकारी और दर्शन कराने वाला योग-साधाना अथवा अधयात्म (स्प्रिच्युलाइजेशन) और परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रह्म-ख़ुदा-गॉड-भगवान् तथा इनकी जानकारी-दर्शन और बात-चीत सहित स्पष्टत: परिचय-पहचान कराने वाला तत्तवज्ञान (True Supreme and Perfect KNOWLEDGE) को पाना और बात-चीत सहित देखना तो दूर रहा, जाना भी नहीं जा सकता; फिर तो इन पर भाषण-कथा-प्रवचन कैसे किया-दिया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया-दिया जा सकता है । कदापि नहीं किया-दिया जा सकता है ।

आशाराम को परमात्मा-परमेश्वर तथा उनकी प्राप्ति-जानकारी वाले तत्तवज्ञान के बारे में तो कुछ भी जानकारी है ही नहीं, आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म-शिव के बारे में भी प्राप्ति दर्शन जानकारी वाले योग-अध्यात्म के बारे में भी वे कुछ नहीं जानते । इतना ही नही, यहाँ तक कि उन्हें जीव और जीव के प्राप्ति दर्शन -जानकारी वाले स्वाध्याय के बारे में भी कोई कुछ भी जानकारी नहीं है। फिर तो परम रहस्य और परम गोपनीय (गीता 18/68) वाले श्रीमद्भगवद्गीता जैसे पवित्रतम् सर्वश्रेष्ठ सद्ग्रन्थ पर ये भाषण-प्रवचन कैसे कर सकते हैं अर्थात् नहीं कर सकते हैं । कदापि नहीं कर सकते हैं । इसके बावजूद भी यदि करते हैं तो भगवद् जिज्ञासु धर्म प्रेमीजन को अपनी मिथ्या महत्तवाकांक्षा की पूर्ति हेतु गुमराह (भरमाते-भटकाते हुए) करते हुए उनके धन-धर्म दोनों का शोषण करते हैं जो नहीं करना चाहिए । कदापि नहीं करना चाहिए । धर्म के आड़ में धर्म-प्रेमी जनता को भ्रमित करते हुए उनके धन-धर्म दोनों का दोहन-शोषण करने वाला एक व्यापार बना लिया है । इनका सब कुछ व्यापार के अतिरिक्त कुछ नहीं । धर्म के विषय में तो ये कुछ जानते ही नहीं। इन सभी उपर्युक्त तथ्यों को सद्ग्रन्थों के प्रमाणों से प्रमाणित करने को मैं तैयार हूँ । बिल्कुल ही तैयार हूँ, कोई भी मिल-जुल कर जाँच-परख कर सकता है। हमारे यहाँ सत्य की प्रमाणिकता के लिए जाँच-परख की सदा ही छूट रहती है-है भी मगर शान्तिमय ढ़ग से सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणिकता के आधार पर ही आवश्यकता पड़ने पर सर्मपण-शरणागत के आधार पर प्रायौगिकता द्वारा भी, मनमाना नही। 
------सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस




सन्त कहलाने वाले आशाराम जी महात्मा भी नहीं, तो परमात्मा कैसे ?

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सद्भावी जिज्ञासु बन्धुओं ! कोई भी किसी को भी सन्त महात्मा कहने से पहले अथवा कहलवाने से पहले सन्त, महात्मा की परिभाषा जानना अत्यावश्यक है । वास्तव में सन्त उसी को कहते हैं जो 'अन्तेन सहित: स: सन्त:' सन्त जो वास्तव में अन्तिम 'सत्य' के साथ हो, अन्तिम 'सत्य' के साथ सदा-सर्वदा ही रह रहा हो-- सन्त वास्तव में वही है । वही 'सत्य' है जो सदा-सर्वदा अपरिवर्तनशील हो, एकरूप हो, जिसमें कभी भी किसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं होता है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सृष्टि का आदि-अन्त का रहस्य जनाने वाला ही सन्त है यानी सम्पूर्ण (संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमात्मा-परमेश्वर) की सम्पूर्णतया (शिक्षा-स्वाध्याय-अध्यात्म और तत्तवज्ञान) को जनाने वाला यानी सीधे ख़ुदा-गॉड-भगवान् को जनाने-दिखाने-परख-पहचान कराने वाला ही सन्त होता है । ''वासुदेव: सर्वं इति'' जिसका सब कुछ भगवान् ही हो । भीतर-बाहर, नीचे-ऊपर, पीछे-आगे-- जिस शरीर विशेष का सबकुछ भगवान् ही हो, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म ही हो, वास्तव में वही 'सच्चा सन्त' कहलाने का हकदार है । भगवान् को छोड़कर, परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रह्म को छोड़कर जिसका कुछ भी संसार में हो, वास्तव में वह सन्त की परिभाषा में नहीं आ सकता है । 



महात्मा उसी को कहते है जो सब कुछ (संसार-शरीर-जीव- ईश्वर-परमेश्वर) को जान-देख कर परमात्मा के आदेश-निर्देश भक्ति-सेवा रूप धर्म-धर्मात्मा-धरती की रक्षा में लगा हो । वास्तव में महात्मा की स्थिति आत्मा से ऊपर और परमात्मा से नीचे यानी आत्मा और परमात्मा के मध्य की होती है । जिस किसी की स्थिति आत्मा मात्र या आत्मा से भी नीचे की हो वह महात्मा कदापि नहीं कहला सकता । सांसारिक माया-मोह में फँसे हुए जीव को परमात्मा-परमेश्वर से जोड़ना महात्मा का प्रमुख कार्य है । महात्मा कहलाने के लिए योग-साधना अथवा आधयात्मिक क्रियाओं से युक्त होना मात्र ही पर्याप्त नहीं होता, आध्यात्मिक क्रियाओं के साथ-साथ 'तत्तवाज्ञान' से युक्त होना-रहना चाहिए साथ ही साथ वैराग्यवान होते-रहते सेवा रूप धर्म-धर्मात्मा-धरती रक्षार्थ भगवद्शरणागत होना रहना-चलना भी अनिवार्यतः आवश्यक होता है । जिसकी जानकारी-मान्यता में आत्मा ही सबकुछ है । आत्मा से नीचे जीव और ऊपर परमात्मा नाम की कोई चीज नही होती । आत्मा ही परमात्मा है । पुन: जीव ही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है, ऐसी मान्यता वाले महात्मा ही नहीं है तो भगवदवतारी कैसे हो जायेगें? 



क्या उपरोक्त दोनों पैरा (सन्त, महात्मा) में से कोई भी लक्षण क्या श्री आशाराम जी में है ? नहीं! कदापि नहीं । थोड़ा बहुत शास्त्र अध्ययन करके कथा-प्रवचन करते ही कोई सन्त-महात्मा नही कहलाता ।



ज्ञात हो श्री आशाराम जी धर्म प्रेमी जिज्ञासुओं से कहते हैं कि आप जिस देवी-देवता को चाहते हो उसी का मन्त्र मुझ से लो और उसका ध्यान करो । बन्धुओं जीवन का लक्ष्य मुक्ति-अमरता की प्राप्ति है किसी भी देवी-देवता का मन्त्र जपने से मुक्ति-अमरता कदापि नहीं मिल सकती । स्वयं देवी-देवता भी मुक्ति-अमरता पाने के लिये मनुष्य का जीवन चाहते हैं । इसके प्रमाण हमारे ग्रन्थों में भरे पड़े हैं । देवी-देवता की आराधना से भोग ही मिल सकता है मुक्ति-अमरता रूपी मोक्ष कभी नहीं मिल सकता । जब ब्रह्मा-इन्द्र-शंकर जी भी मुक्त नही हैं तो और देवी-देवताओं की बात ही कहाँ ? फिर तो वे मुक्ति-अमरता कैसे दे सकते हैं ? नही दे सकते। जो स्वयं मुक्त नहीं है वह दूसरों को मुक्ति-अमरता कैसे दे सकता है ? नहीं दे सकता! कदापि नहीं दे सकता !! 



बन्धुओं ! चूरन, अगरबत्ती बेचना, साबुन आदि-आदि सामग्री बनवा कर बेचना यानी अर्थ अर्जन के लिए कथा-प्रवचन को माध्यम नहीं बनाना चाहिए क्योंकि कथा-प्रवचन ख़ुदा-गॉड-भगवान् की प्राप्ति तथा महापुरुष बनने के प्रति उत्प्रेरित करने का माध्यम है । अर्थ अर्जन करना ही हो तो दुनिया में बहुत से धन्धे बने हुए हैं । अर्थ अर्जन करने के लिए कभी भी कथा-प्रवचन जैसे पवित्र विधान को अपवित्र नहीं बनाना चाहिए-कलंकित नहीं करना चाहिए। 



परमेश्वर की जानकारी तो बहुत दूर की बात है श्री आशाराम जी को जीव की ही जानकारी नहीं है तो परमेश्वर के विषय में ऊल-जलूल बातें करना मूढ़ता नहीं तो और क्या है ? जीव की जानकारी के पश्चात् ही मालूम पड़ता है कि वास्तव में यह संसार सहित शरीर बिल्कुल ही झूठ है । 'जगन्मिथ्या' झूठा जगत है तभी वैराग्य खिलता है और कोई व्यक्ति सांसारिक से धार्मिक हो सकता है। जीव की जानकारी धर्म का पहला सोपान है अर्थात् धर्म यहीं से शुरु होता है । जब जीव की ही जानकारी नहीं है तो कैसे कोई धार्मिक कहला सकता है ? किसी विषय में जानकारी नहीं होना बुरी बात नहीं है बल्कि जानकारी नहीं होने के पश्चात् भी उस विषय में बोलना जानकार बनना मूर्खता ही नहीं महामूर्खता है । 

आप सभी श्री आशाराम जी के शिष्य से हमारा कहना है कि आप ने गुरु किसी लिए किया था क्या आप गुरु के यहा गुरुजी के भौतिक संसाधन देखने गये थे ? क्या आप गुरु जी के यहा महल अट्टालिकायें देखने गये थे ? या आप गुरु जी के यहा हजारो-लाखों के भीड़ देखने गये थे ? हमारे समझ में कोई भी जिज्ञासु-श्रध्दालु गुरु के यहा ज्ञान के लिए अपना उध्दार-कल्याण के लिए जाता है न कि भौतिक चकाचौंध देखने गुरुजी के यहा जाता है । जिस गुरु जी के ज्ञान में आपने जीव-आत्मा-परमात्मा को नहीं जाना, जिस ज्ञान से आपको मुक्ति-अमरता का बोधा नहीं हुआ वह गुरु का ज्ञान कैसा ? फिर उस ज्ञान का क्या प्रयोजन ? आध-अधूरा झुठा ज्ञान बाले गुरु से क्या आपका उध्दार-कल्याण होगा सम्भव है। 

"झूठा गुरु अझगर भए । चेला सब चीटी भए नोची नोची के खाए ॥"

कई झूठे गुरु में फँ सकर ऐसी स्थित न हो जाए इसीलिए सच्चे गुरु का खोज करके अपने को सच्चे सद्गुरु के ज्ञान-भक्ति से जोड़े तभी उध्दार-कल्याण सम्भव है ।

सच्चे गुरु का पहचान ऐसे करें
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सच्चा सद्गुरु वह है जो ज्ञान 'तत्तवज्ञान' दे, तत्तवज्ञान वह ज्ञान है जिसमें संसार-शरीर-जीव आत्मा और परमात्मा का अगल-अलग बातचीत सहित साक्षात् दर्शन व मुक्ति अमरता का साक्षात् बोध तत्काल प्राप्त करा दें । ऐसे ज्ञानदाता को ही तत्तवज्ञानदाता सद्गुरु भगवदावतार कहते हैं । जिस गुरु के ज्ञान में भगवान् न मिले मुक्ति-अमरता का बोध न हो वह सद्गुरु कैसा?
आप सभी से गुरुजनों के शिष्य समाज से मेरा यही निवेदन है कि आप अपने गुरु से तत्तवज्ञान मांगे जीव-आत्मा-परमात्मा का साक्षात् दर्शन मांगे यदि आपके गुरु जी तत्तवज्ञान देने से इन्कार करें तो आप समझ जाईये कि आपका गुरु पूर्ण सम्पूर्ण वाला सच्चा नहीं है फिर उस गुरु से आपका उध्दार कल्याण कदापि सम्भव ही नहीं है । सच्चे सद्गुरु का खोज करें तत्पश्चात् अपने को उसके भक्ति-सेवा में जोडें तभी इस जीवन का उध्दार-कल्याण सम्भव है तब ही मानव जीवन सफल-सार्थक होगा । 

गुरु करें दस पांचा जब तक मिलें न साचा ।
शेष सब भगवत् कृपा 

कमल जी 
परमतत्तवम् धाम आश्रम
बी-6, लिवर्टी कालोनी,
सर्वोदय नगर, लखनऊ-16

निरंकार और निरंकारी 

 

बाबा हरदेव सिंह 

निरंकारियों के निरंकार को ही लीजिये कि निरंकार माने क्या ? थोड़ा सा भी गौर किया जाय तो अवश्य ही समझ में आ जायेगा कि निरंकार माने एक प्रकार की नास्तिकता, क्योंकि बीच में खुला स्थान रखते हुए एक हथेली नीचे और दूसरी हथेली उपर करके दिखलाना कि लो देखो तो दोनों हथेली के बीच में क्या है ? खाली है- आकाश है- बस और क्या ? यही तो निराकार है । बस यही निरंकार भगवान है- यह न जल सकता है , न मर सकता है, न कट सकता है आदि आदि । दोनों हथेलियों के बीच में है तो यही जीव-जीवात्मा-आत्मा है और जब उन्मुक्त खुला आसमान है तो वही सर्वव्यापी निरंकार भगवान है । थोड़ा सा गौर तो करें कि वास्तव में क्या यह नास्तिकता ही नहीं है ? अब प्रेम से रहो, हिलमिल कर रहो, आपस में संगठित होकर एक-दूसरे के सेवा सहयोग से, शिष्टाचार से रहते हुए खूब प्रचार-प्रसार करो । बस यही धर्म है। अन्तत: क्या मिला निरंकारियों को ? कुछ नहीं !

मगर एक बात है कि इन्हें झूठ बोलने को भरपूर मिला है । वह क्या कि ये मान बैठे हैं कि हमें सब कुछ मिल गया है । भगवान् का दर्शन हो गया है, वह निरंकार ही तो है । जबकि मिलता कुछ नहीं भी नहीं । सच्चाई यह है कि ये सभी भगवान् के नाम पर घोर नास्तिक है, झूठे हैं और समाज में पारिवारिक मायाजाल में जकड़े रहने पर भी सभी ही अपने को निरंकार कहते हैं जो झूठ ही तो है ।

धर्म के अन्तर्गत अथवा खुदा-गॉड भगवान् के स्थान पर ऐसी उल-जलूल मिथ्या संस्थायें भी स्थित-स्थापित होकर अति तीव्रतर गति से नास्तिकता का प्रचार-प्रसार करते हुए जनमानस को खुदा-गॉड-भगवान् के नाम पर नास्तिकता में भरमा-भटकाकर नास्तिकता में ढकेलते हुए धर्म पिपासुओं--भगवद् जिज्ञासुओं--सत्यान्वेषियों को निराकर-निरंकार रूप नास्तिकता में भरमा-भटका कर भटका-लटका दिया जा रहा है ।

आश्चर्य ! ऐसे नास्तिकता प्रधान आडम्बरी-ढोंगी- पाखण्डी तथाकथित सद्गुरुजन पर तो है ही कि आखिर ये तथाकथित धर्मोपदेशक लोग इस प्रकार के मिथ्या प्रलाप से क्या हासिल करना चाहते हैं? इनकी मान्यता में खुदा-गॉड-भगवान निरंकार-निराकार यानी कुछ है ही नहीं तो इस निरंकार-निराकार- की मान्यता से वे क्या प्राप्त करना चाहते हैं ? अपनी मिथ्या महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु ये तथाकथित धर्मोपदेशक लोग धर्म प्रेमी-भगवद् जिज्ञासु-सत्यान्वेषी सज्जनों के धन और धरम दोनों के दोहन-शोषण के सिवाय और कुछ कर ही-दे क्या सकते हैं, अर्थात् कुछ भी नहीं । नि:सन्देह ऐसे धर्मोंपदेशकों से किसी को भी क्या प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ! फिर ऐसों में चिपकना नादानी नहीं तो सत्यज्ञानी होना होगा क्या ?

आश्चर्य ! इन उपर्युक्त तथाकथित धर्मोपदेशकों पर तो है ही, इससे भी बड़ा और भारी आश्चर्य तो इनके शिष्य-अनुयायियों पर है कि इन लोगों को उनसे ( तथाकथित धर्मोपदेशकों से) कुछ भी न मिलने के बावजूद भी भरम-भटक फंस-चिपक-लटक कर उन्हीं की झूठी-झूठी महिमा गुणगान करने में मशगूल हैं--लगे बझे हैं । थोड़ा भी नहीं सोचते-समझते कि आखिर ऐसे झूठे नास्तिकता प्रधान ढोंगी-आडम्बरी-पाखण्डी तथाकथित सद्गुरु- धर्मोंपदेशकों का विरोध बहिष्कार करने के बजाय झूठे गुणगान से इनसे क्या मिलने वाला है अर्थात् कुछ भी नहीं। नि:सन्देह कुछ भी नहीं । फिर ऐसा झूठा गुणगान क्यों करें ?

क्या अजीब आश्चर्य है कि जिसको खुदा-गॉड-भगवान तो खुदा-गॉड-भगवान् है, आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर- सोल-स्पिरिट-ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि की तो कोई जानकारी है ही नहीं, जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं की भी लेशमात्र भी जानकारी नहीं है कि वास्तव में ये सब क्या हैं ? कैसे हैं ? कहां रहते हैं ? जानने-देखने को मिलते हैं कि नहीं और मिलता है तो कैसे-- आदि के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी न रहने के बावजूद भी ये निराकार-निरंकार वाला हरदेव भी सद्गुरु बनने-कहलाने लगा है । अपने को धर्मोपदेशक कहने-कहलवाने में लगा है ।

अब आप ही जानें-समझें कि ऐसे नाजानकार नास्तिक जन भी धर्मोपदेशक बनकर धर्मोपदेश करने लेगेंगे तो धर्म की जनमानस में क्या स्थिति होगी । ये भी अपने प्रवचनों और किताबों में बोलने-लिखने लगे हैं कि यह ( हरदेव ) सत्य को जनाता-दिखाता है-- सत्य ज्ञान देता है-- अपने शिष्य-अनुयायियों को सत्य--भगवान को जनाता-दिखाता है । इतना ही नहीं अब ये अपने को अवतार बनने-कहलवाने में लगा है । ऐसे झूठे नास्तिक-मिथ्या महत्वाकांक्षी जन भी जब सद्गुरु अथवा धर्मेंपदेशक बन-बनाकर समाज में बढ़ने-फैलने लगेगें तो उस समाज ;शिष्य-अनुयायियोंध्द का ह्रास-पतन और विनाश नहीं होगा तो और क्या होगा ? बिल्कुल ही पतन और विनाश इन सभी का होना ही है। यदि यें लोग इनसे अपने को बचाते हुए वास्तव में सच्चे तत्त्वज्ञान रूप सत्यज्ञान को पाते हुए सच्चे भगवदवतार को अपने को नहीं जुड़ जाते ।

नि:सन्देह ये उपर्युक्त कथन किसी निन्दा आलोचना के अन्तर्गत नहीं, अपितु मात्र सत्य ही नहीं बल्कि परमसत्य विधान पर आधारित और सद्ग्रन्थीय तथा प्रायौगिकता के प्रमाण से प्रमाणित है । यह हम महसूस कर रहे हैं कि गुरुत्त्व में आस्था-निष्ठा की मान्यता के चलते उनके शिष्यों-अनुयायियों को इसे पढ़कर थोड़ा झुझलाहट-दु:ख-तकलीफ अवश्य होगा मगर ईमान-सच्चाई से मुझसे मिलकर सद्ग्रन्थीय सत्प्रमाणों के आधार पर निष्पक्ष एवं तटस्थ भाव से जांच-परख करेंगे तो नि:सन्देह उपर्युक्त कथनों को अक्षरश: सत्य ही पायेंगे। बिलकुल ही सत्य ही पायेंगे। निरंकार और हरदेव के विषय में वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के पहले इनका निराकार-निरंकार 'तत्त्वज्ञान' के किस श्रेणी में आता है, यह जान लेना यहां पर आवश्यक लग रहा है ।

वास्तव में 'तत्त्वज्ञान' के विषय में जानकारियाँ आप सभी को भगवद्कृपा से प्राप्त होती रही है और विभिन्न अध्यायों के माध्यम से हो भी रही हैं। जैसा कि आप सभी को बताया गया है कि 'तत्त्वज्ञान' में चार श्रेणियां होती हैं । नीचे से ऊपर को क्रमश: 
1. शिक्षा (Education) 
2. स्वाध्याय (Self Realization) 
3. योग-साधना अथवा अध्यात्म (Yoga or Spiritualization ) और 
4. तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्यज्ञान (True, Supreme and Perfect KNOWLEDGE) 

क्रमश: नीचे से ऊपर को इन चार श्रेणियों में दूसरे श्रेणी वाला जो स्वाध्याय है, इसमें तीन अंग हैं-- (क) श्रवण (ख) विचार या मनन-चिन्तन और (ग) निदिध्यासन । 
तत्त्वज्ञान के उपर्युक्त चार श्रेणियों में से पहली श्रेणी जो शिक्षा है, यह पूर्णतया भौतिक या लौकिक है जिसके विषय में कमोवेश सारा समाज ही, खासकर सुशिक्षित समाज अच्छे प्रकार से परिचित है और तीसरा जो योग-साधना अथवा अध्यात्म है, को समाज का योगी-साधक अथवा आध्यात्मिक क्रिया वाले जानते हैं अथवा इससे परिचित हैं, मगर पहले और तीसरे के बीच वाला दूसरा जो स्वाध्याय है, की भी वास्तविक जानकारी चौथे तत्त्वज्ञान वाले तत्तवज्ञानदाता को ही स्पष्टत: होती है, पूरे ब्रम्हाण्ड में अन्यथा किसी को भी नहीं । इसीलिये दूसरा जो स्वाध्याय है, इसके तीन अंगों (श्रेणियों) में प्रथम स्थान 'श्रवण' को मिला । यानी स्वाध्याय की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिये तत्त्वज्ञानदाता तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से सर्वप्रथम स्वाध्याय अथवा जीव-रूह-सेल्फ से सम्बन्धित अध्ययन विधान को अच्छी प्रकार से सुनना (श्रवण करना) और उसे दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार या मनन-चिन्तन' के माध्यम से भलीभांति समझना पड़ता है कि जीव-रूह-सेल्फ की जानकारी से सम्बन्धित जो कुछ भी हम सुन रहे हैं, वह सही ही है कि नहीं । तीसरा अंग (श्रेणी) जो 'निदिध्यासन' है, यह जीव-रूह-सेल्फ के स्पष्टत: दर्शन से सम्बन्धित स्थिति है जो प्रायौगिक (Practical) पध्दति के अन्तर्गत प्राप्त होता है । यह प्राप्ति भी एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता तत्त्वदर्शी सत्पुरुष से ही सम्भव है। भू-मण्डल पर क्या, पूरे ब्रम्हाण्ड में ही किसी अन्य से सम्भव नहीं ।

यह उपर्युक्त तीन अंगों (श्रेणियों) वाले 'स्वाध्याय' में पहला जो 'श्रवण' है यह सबसे महत्वपूर्ण अंग (श्रेणी) है। मगर भूत के स्वाध्यायियों को और वर्तमान वाले स्वाध्यायियों को भी देखने-जानने-समझने से ऐसा जानने-देखने-समझने में मिलता है कि पहले वाले 'श्रवण' के स्थान पर मनमाना शास्त्रों-ग्रन्थों के पठन-पाठन को रखकर दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार अथवा मनन-चिन्तन' को अपना सर्वेसर्वा (आधार-माध्यम और उद्देश्य) मान बैठते हैं और ऐसे ही अपने व्यवहार में भी स्वीकार करके रहने-चलने लगते हैं। ऐसा रहना-करना इनकी मजबूरी भी है क्योंकि भू-मण्डल पर पूर्णावतार के वगैर 'तत्त्वज्ञानदाता' तत्त्वदर्शी सत्पुरुष तो इनको मिलेगा नहीं तो फिर ये लोग स्वाध्याय के प्रथम अंग (श्रेणी) वाले जीव-रूह-सेल्फ की यथार्थत: जानकारी वाला सुनकर प्राप्त होने वाली समस्त जानकारियाँ यानी 'श्रवण' मिलेगा ही किससे और कैसे ? अर्थात् मिल ही नहीं सकता ।

यह उपर्युक्त तीन अंगों (श्रेणियों) वाले 'स्वाध्याय' में पहला जो 'श्रवण' है यह सबसे महत्वपूर्ण अंग (श्रेणी) है। मगर भूत के स्वाध्यायियों को और वर्तमान वाले स्वाध्यायियों को भी देखने-जानने-समझने से ऐसा जानने-देखने-समझने में मिलता है कि पहले वाले 'श्रवण' के स्थान पर मनमाना शास्त्रों-ग्रन्थों के पठन-पाठन को रखकर दूसरे अंग (श्रेणी) वाले 'विचार अथवा मनन-चिन्तन' को अपना सर्वेसर्वा (आधार-माध्यम और उद्देश्य) मान बैठते हैं और ऐसे ही अपने व्यवहार में भी स्वीकार करके रहने-चलने लगते हैं। ऐसा रहना-करना इनकी मजबूरी भी है क्योंकि भू-मण्डल पर पूर्णावतार के वगैर 'तत्त्वज्ञानदाता' तत्त्वदर्शी सत्पुरुष तो इनको मिलेगा नहीं तो फिर ये लोग स्वाध्याय के प्रथम अंग (श्रेणी) वाले जीव-रूह-सेल्फ की यथार्थत: जानकारी वाला सुनकर प्राप्त होने वाली समस्त जानकारियाँ यानी 'श्रवण' मिलेगा ही किससे और कैसे ? अर्थात् मिल ही नहीं सकता ।

इसलिये स्वाध्याय की श्रेणी में रहने-चलने के लक्षण वाले इधर 'श्रवण' से तो बंचित रह ही गये, उधर 'निदिध्यासन' भी इन्हें नहीं मिल सका क्योंकि निदिध्यासन भी एकमात्र पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता सत्पुरुष ही कर-करा सकता है । दुनिया के किसी भी ग्रन्थ में ही नहीं मिलेगा कि निदिध्यासन क्या है ? इसकी वास्तविक स्थिति और जानकारी क्या है ? केवल एकमेव एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता सद्गुरु ही इसके वास्तविक स्थिति को जानता-जनाता है, अन्यथा कोई भी नहीं! कोई भी नहीं !!

अत: 'श्रवण' और 'निदिध्यासन' अर्थात् जीव-रूह- सेल्फ-स्व-अहं की यथार्थत: जानकारी वाले 'श्रवण' और दर्शन प्राप्त कराने वाले विधान रूप 'निदिध्यासन' दोनों से तो यह स्वाध्यायी समाज बिल्कुल बंचित ही रह गया । यानी स्वाध्यायी समाज जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहं के स्पष्टत: साक्षात् दर्शन से तो बंचित रह ही गया, यथार्थत: जानकारी से भी बंचित हो-रह गया। अब इन लोगों के पास रह क्या गया, मात्र 'विचार या मनन-चिन्तन'। इन सभी लोगों की सारी जानकारी और सारी पहुंच इसी मात्र 'विचार या मनन-चिन्तन' तक सिमटकर रह गयी । प्रायौगिकता (Practical) नाम की कोई चीज इन लोगों के पास होती ही नहीं । विचार या कल्पना के अन्तर्गत चाहे जितनी ये दौड़ लगा लें, चाहे जितनी उंची उड़ान भर लें, मगर सच्चाई (सत्य) से तो ये वास्तव में बहुत बहुत बहुत ही दूर-पीछे छूटे रहते हैं । फिर भी ये अपने को किसी ब्रम्हज्ञानी और तत्त्वज्ञानी से कम नहीं समझते क्योंकि मिथ्याज्ञानाभिमान और मिथ्या अहंकार इनका सहज स्वभाव ही हो जाया करता है । यही इनकी सहज स्वाभाविक स्थिति होती है । इसी वर्ग में महाराष्ट्र के स्वाध्यायी आन्दोलन वाले पाण्डुरंग शास्त्री, गुजरात वाले आशाराम, मुरारी बापू, रामकिंकर उपाध्याय, रजनीश, समस्त महामण्डेश्वरगण, तथाकथित भागवत कथा-गीताकथा को ज्ञानयज्ञ कहकर प्रचार करने वाले कथावाचकगण, चिन्मय मिशन के चिन्मयानन्द (मृत)-- वर्तमान तेजोमयानन्द, पाण्डीचेरी वाले अरविन्द (मृत)-- वर्तमान में अरविन्द सोसाइटी, प्रजापिता ब्रम्हाकुमारी वाले आदि-आदि सहित प्रस्तुत शीर्षक वाला निराकार-निरंकार वाला हरदेव भी इसी वर्ग (श्रेणी) में आते हैं । इससे अलग अतिरिक्त कुछ भी नहीं ।

अजीब आश्चर्य की बात है ऐसे गुरुजनों के शिष्यों-अनुयायियों के प्रति कि इन शिष्य-अनुयायी गणों को मिलता तो कुछ नहीं, मगर अपने भाववश विचार- प्रवाह में बहकर विचार के अन्तर्गत जो कुछ भी बात-विचार तथाकथित गुरुजनों द्वारा इनके समक्ष रखा जाता है उसी को ये लोग जीव भी, ईश्वर भी, परमेश्वर भी, सत्य भी, सुनना भी, देखना भी, प्रैक्टिकल भी आदि-आदि सब कुछ मान बैठते हैं जबकि वास्तव में मिला होता कुछ भी नहीं और इसी मान्यता के आधार पर अपने तथाकथित गुरुजनों को भी अवतार मानने-घोषित करने-कराने और वैसा ही व्यवहार देने लगते हैं। बिलकुल अवतार का ही व्यवहार देने लगते हैं । क्या इससे भी बड़ा कोई और झूठ और आश्चर्य हो सकता है कि देखना तो देखना है, जानने को भी इन लोगों को जीव भी नहीं मिलता है, ईश्वर और परमेश्वर तो दूर रहा, फिर भी ये सब अपने को कुछ भी नहीं मिलने की स्थिति में होते-रहते हुये भी विचार-भाव में बहकर अपने को सब मिला हुआ मान बैठे रहते हैं । यह कितनी बड़ी बिडम्बना और कितना बड़ा आत्मघाती झूठ है । फिर भी वे सब इसको सत्य मानकर इसमें भरमें-भटके-चिपके-लटके हैं। यह इनकी अपने आप जीव के लिये कितनी बड़ी आत्मघाती स्थिति है, कहा नहीं जा सकता ।

ये शिष्य-अनुयायीगण थोड़ा भी सोचने-जानने- समझने की कोशिश नहीं करते कि पूरे सत्ययुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर एक समय में एक ही पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता श्रीविष्णुजी महाराज थे । ऐसे ही पूरे त्रेतायुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर ही एक समय में पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता एकमेव एकमात्र श्रीराम जी थे । ठीक ऐसे ही पूरे द्वापरयुग में देवलोक सहित पूरे भू-मण्डल पर ही एक समय में पूर्णावतार तत्त्वज्ञानदाता एकमेव एकमात्र केवल श्रीकृष्ण जी महाराज ही थे । मगर आजकल वर्तमान में मात्र निराकार-निरंकार समाज में ही अवतार सिंह (मृत) भी अवतार, गुरुबचन सिंह (मृत) भी अवतार और वर्तमान में हरदेव सिंह भी अवतार और क्रमश: इनकी गद्दी पर जो जो बैठने वाले हैं, क्रमश: वे सभी अवतार हैं। यह अवतार की परिभाषा-जानकारी कहां से आ गयी ?
किस ग्रन्थ में ऐसी मान्यता है ? इन शिष्य अनुयायियों को क्या इतना भी नहीं सोचना चाहिए ?
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस


रोचक लेकिन कठिन है नागा साधु बनने की प्रक्रिया



दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले-महाकुंभ के कई अलग-अलग रंगों में एक रंग हैं- नागा साधु जो हमेशा की तरह श्रद्धालुओं के कौतूहल का केंद्र बने हुए हैं। इनका जीवन आम लोगों के लिए एक रहस्य की तरह होता है। नागा साधु बनाने की प्रक्रिया महाकुंभ के दौरान ही होती है। नागा साधु बनने के लिए इतनी परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद बिना संन्यास के ²ढ़ निश्चय के कोई व्यक्ति इस पर पार ही नहीं पा सकता।
सनातन परंपरा की रक्षा और उसे आगे बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न संन्यासी अखाड़ों में हर महाकुंभ के दौरान नागा साधु बनाए जाते हैं। माया मोह त्यागकर वैराग्य धारण की इच्छा लिए विभिन्न अखाड़ों की शरण में आने वाले व्यक्तियों को परम्परानुसार आजकल प्रयाग महाकुंभ में नागा साधु बनाया जा रहा है। अखाड़ों के मुताबिक इस बार प्रयाग महाकुंभ में पांच हजार से ज्यादा नागा साधु बनाए जाएंगे।
आमतौर पर नागा साधु सभी संन्यासी अखाड़ों में बनाए जाते हैं लेकिन जूना अखाड़ा सबसे ज्यादा नागा साधु बनाता है। सभी तेरह अखाड़ों में ये सबसे बड़ा अखाड़ा भी माना जाता है। जूना अखाड़े के महंत नारायण गिरि महाराज के मुताबिक नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। उनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है।
उन्होंने कहा कि जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है। उसकी पूरी पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है तो उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है।
गिरि के मुताबिक प्रवेश की अनुमति के बाद पहले तीन साल गुरुओं की सेवा करने के साथ धर्म कर्म और अखाड़ों के नियमों को समझना होता है। इसी अवधि में ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर ले कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है तो फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है।
उन्होंने कहा कि अगली प्रक्रिया कुम्भ मेले के दौरान शुरू होती है। जब ब्रह्मचारी से उसे महापुरुष बनाया जाता है। इस दौरान उनका मुंडन कराने के साथ उसे 108 बार गंगा में डुबकी लगवाई जाती है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं।
महापुरुष के बाद उसे अवधूत बनाया जाता है। अखाड़ों के आचार्य द्वारा अवधूत का जनेऊ संस्कार कराने के साथ संन्यासी जीवन की शपथ दिलाई जाती हैं। इस दौरान उसके परिवार के साथ उसका भी पिंडदान कराया जाता है। इसके पश्चात दंडी संस्कार कराया जाता है और रातभर उसे ओम नम: शिवाय का जाप करना होता है।
जूना अखाड़े के एक और महंत नरेंद्र महाराज कहते हैं कि जाप के बाद भोर में अखाड़े के महामंडलेश्वर उससे विजया हवन कराते हैं। उसके पश्चात सभी को फिर से गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। स्नान के बाद अखाड़े के ध्वज के नीचे उससे दंडी त्याग कराया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है।
चूंकि नागा साधु की प्रक्रिया प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ के दौरान ही होती है। ऐसे में प्रयाग के महाकुंभ में दीक्षा लेने वालों को नागा, उज्जैन में दीक्षा लेने वालों को खूनी नागा, हरिद्वार में दीक्षा लेने वालों को बर्फानी व नासिक वालों को खिचड़िया नागा के नाम से जाना जाता है। इन्हें अलग-अलग नाम से केवल इसलिए जाना जाता है, जिससे उनकी यह पहचान हो सके कि किसने कहां दीक्षा ली है।

 

"ताज महल की सच्चाई"


बी.बी.सी. कहता है.........ताजमहल.........एक छुपा हुआ सत्य........कभी मत कहो कि........यह एक मकबरा है........!!

प्रो. ओक. बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि, ताजमहल विशाल मकबरा न होकर विशेषतः हिंदू शिव मन्दिर है.......
आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं, जो आम जनता की पहुँच से परे हैं। 

प्रो. ओक., जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति,त्रिशूल,कलश और ॐ आदि वस्तुएं प्रयोग की जाती हैं।

==>ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद बूँद कर पानी टपकता रहता है,, यदि यह सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी किभी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही टपकाया जाता,जबकि प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूँद बूँद कर पानी टपकाने की व्यवस्था की जाती है,फ़िर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकाने का क्या मतलब.....????

राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गईं थीं।

प्रो. पी.. एन. ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में खुलवाए, और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे ....!!


  • ताजमहल का आकाशीय दृश्य......


  • आतंरिक पानी का कुंवा.............


  • ताजमहल और गुम्बद के सामने का दृश्य 


  • गुम्बद और शिखर के पास का दृश्य.....


  • शिखर के ठीक पास का दृश्य.........


  • आँगन में शिखर के छायाचित्र कि बनावट.....


  • प्रवेश द्वार पर बने लाल कमल.........


  • ताज के पिछले हिस्से का दृश्य और बाइस कमरों का समूह........

  • पीछे की खिड़कियाँ और बंद दरवाजों का दृश्य........


  • विशेषतः वैदिक शैली मे निर्मित गलियारा.....


  • मकबरे के पास संगीतालय........एक विरोधाभास.........


  • ऊपरी तल पर स्थित एक बंद कमरा.........


  • निचले तल पर स्थित संगमरमरी कमरों का समूह.........


  • दीवारों पर बने हुए फूल.......जिनमे छुपा हुआ है ओम् ( ॐ ) ....


  • निचले तल पर जाने के लिए सीढियां........


  • कमरों के मध्य 300फीट लंबा गलियारा..


  • निचले तल के२२गुप्त कमरों मे सेएककमरा...


  • २२ गुप्त कमरों में से एक कमरे का आतंरिक दृश्य.......


  • अन्य बंद कमरों में से एक आतंरिक दृश्य..   


  • एक बंद कमरे की वैदिक शैली में निर्मित छत......


  • ईंटों से बंद किया गया विशाल रोशनदान .....


  • दरवाजों में लगी गुप्त दीवार,जिससे अन्य कमरों का सम्पर्क था.....


  • बहुत से साक्ष्यों को छुपाने के लिए,गुप्त ईंटों से बंद किया गया दरवाजा......


  • बुरहानपुर मध्य प्रदेश मे स्थित महल जहाँ मुमताज-उल-ज़मानी कि मृत्यु हुई थी.......


  • बादशाह नामा के अनुसार,, इस स्थान पर मुमताज को दफनाया गया......... 



अब कृपया  इसे पढ़ें .........

प्रो.पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि......."ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था"
प्रो.ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस बात में विश्वास रखते हैं कि,-- सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने बनवाया था.....!!

ओक कहते हैं कि: 
ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था। 
अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया था।

==>शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी "ने अपने "बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000  से ज़्यादा पृष्ठों मे लिखा है,,जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद, बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके ०६ माह बाद,तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया गया फ़िर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए,आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे ,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे. इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जयसिंह को दिए गए थे।

==>यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और भवनों का प्रयोग किया जाता था ,उदाहरनार्थ हुमायूँ, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे दफनाये गए हैं.....

==>प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है--------- ="महल" शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश मेंभवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता...यहाँ यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है.......वह कम से कम दो प्रकार से तर्कहीन है---------
 पहला -----शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था,,,बल्कि उसका नाम मुमताज-उल-ज़मानी था ...

और दूसरा-----किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग (मुम) को छोड़ दिया जाए,,,यह समझ से परे है... प्रो.ओक दावा करते हैं कि,ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का बिगड़ा हुआ संस्करण है, साथ ही साथ ओक कहते हैं कि----मुमताज और शाहजहाँ कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है क्योंकि शाहजहाँ के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की पुष्टि नही करता है।
इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षतः समर्थन कर रहे हैं......तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान् शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था-----

==>न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़ के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष पुराना है...

==>मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था......


 ==>यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था।


 ==>फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था।

सोचिये....!!!!!!



कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतयः सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत,शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से एक भवन, "तेजो महालय" को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ को क्यों......?????


ये पढ़ें क्या ताज महल को सच्चे प्यार की निशानी कहना ठीक है ????
इसमे प्यार कहाँ है ????



कुछ लिंक्स:

http://www.stephen-knapp.com/was_the_taj_mahal_a_vedic_temple.htm
http://www.youtube.com/watch?v=lvmAbQFnP9s&feature=share
http://www.shreshthbharat.in/literature/bharat-history/tajmahal-a-hindu-temple/
http://www.youtube.com/watch?v=-AtbEAvpEbI


 

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