Wednesday, May 29, 2013

रुंधे गले कह रहे हैं-ये नक्सली नहीं, आतंकी हैं!

छत्तीसगढ़ के सुकमा में 25 मई को कांग्रेस नेताओं के काफिले पर नक्सलियों ने जानलेवा हमला किया। पूरे देश को हिला देने वाली इस घटना में कई बड़े नेताओं समेत कई आम इंसान भी मारे गए। आम इंसानों की यूं बेरहमी से हत्या कई सवाल खड़े करती है कि क्या नक्सली आतंकियों की राह पर चल पड़े हैं? क्या उनका मकसद सिर्फ हिंसा ही रह गया है?
क्योंकि इस हमले में नक्सलियों ने कई ऐसे लोगों को मारा जो ना तो किसी राजनीतिक पार्टी के थे और ना ही नक्सलियों के खिलाफ थे। ऐसी हर वारदात के बाद नक्सली स्थानीय लोगों से अपने किए की माफी मांग लेते हैं लेकिन क्या महज माफी मांगने भर से उनका गुनाह कम हो जाएगा?
रुंधे गले कह रहे हैं-ये नक्सली नहीं, आतंकी हैं!
मनोज बस्तर में रहने वाला आम आदमी था। ना बीजेपी कार्यकर्ता और न ही कांग्रेस समर्थक। न नक्सली विरोधी और न उनका समर्थक। 25 मई को हुए हमले में मनोज की भी जान गई। पांच महीने पहले ही उसकी शादी हुई थी। पत्नी रजनी इस मातम को बर्दाश्त करने की हालत में नहीं है। वो बार-बार बेहोश हो रही है। मनोज को बस अपने एक दोस्त के साथ घंटे भर के लिए अपनी बोलेरो गाड़ी लेकर परिवर्तन यात्रा में जाना महंगा पड़ गया।
मनोज की मां रंभा देवी कहती हैं कि मेरे बेटे ने उन लोगों का क्या बिगाड़ा था। बस यही चाहती हूं कि नक्सली खत्म हो जाएं। मुझे इंसाफ मिलना चाहिए। मैं गरीब हूं और मेरा कोई सहारा नहीं है। मेरा बेटा कमाकर खिलाता था। छोटी सी दुकान चलाता था। अपने शौक के लिए गाड़ी खरीदी थी।
इस लाल आतंक के आगे सिर्फ रंभा देवी की ही दुनिया नहीं उजड़ी है। दरभा में रहने वाली आरावती ने भी अपने राजकुमार को खो दिया। उनके पति का निधन पहले ही हो चुका था। आरावती सपना देख रही थीं। उनका इकलौता बेटा राजकुमार 5 जुलाई को 18 साल का होने वाला था। वो बड़ा हो गया था लेकिन वो सपना उनकी आंखों में ही मर गया।
सिर्फ आम आदमी ही नहीं लाल आतंक के साए के सताए सरकारी तंत्र के लोगों की कहानियां भी दर्दनाक हैं। पुलिस के एक जवान की ड्यूटी कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की सुरक्षा में लगी थी। दरभा की वारदात के चार दिन बाद बुधवार को उसका शव मिला। लेकिन ये चार दिन पवन कोंद्रा के परिवार के लिए दुख और दहशत की चार सदियों में बदल गए।
पवन कोंद्रा की पत्नी तीन दिन तक इस दुनिया से कटी रही। उसे तीन दिन तक ना टेलीविजन देखने दिया गया और न तो अखबार पढ़ने दिया गया। क्योंकि घरवाले एक डर से जूझ रहे थे कि घर के चिराग पुलिस कांस्टेबल पवन के साथ अनहोनी ना हो गई हो। नक्सली हमले के बाद से ही कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की सुरक्षा में तैनात पवन लापता था। उसके पीछे घर पर थी उसकी पांच महीने की गर्भवती पत्नी। घरवाले नहीं चाहते थे कि ऐसे नाजुक वक्त में पत्नी को कोई सदमा लगे।
पवन का भाई राजकुमार कहता है कि हालत बहुत खराब है। क्योंकि उनकी भाभी पांच महीने की प्रेगनेंट है। कोई उसको सच्चाई नहीं बता पा रहे हैं। पवन जब से नौकरी में लगा था वो घर में नहीं रहता था। क्योंकि हमारा क्षेत्र बहुत संवेदनशील है।
चार दिन तक उम्मीद की ये पतली डोर बंधी रही कि शायद पवन नक्सलियों की अंधाधुंध फायरिंग में बच गया हो। जख्मी हो और जंगल में कहां छुपा हुआ हो। लेकिन चार दिन बाद तलाशी में जंगल से उसका शव मिला। उसे गोली लगी थी लेकिन उसका हथियार उसके पास ही था। शायद वो हमले के बाद गोलियां चलाता हुआ जंगल में जा छिपा लेकिन जख्मी हालत में ज्यादा वक्त तक जिंदा न रह सका। हमले के तुरंत बाद अगर सुरक्षाबल जंगल में घुसने का साहस दिखाते तो शायद जख्मी पवन को बचाया जा सकता था।
कोंद्रा परिवार के लिए ये दोहरा झटका था। पवन के पिता सत्यनारायण बीजापुर के मड्डेड गांव के सरपंच थे। 2001 में नक्सलियों ने उनकी हत्या कर दी थी। उसके बाद से ही ये परिवार नक्सलियों की छाया से भी दूर रहने की कोशिश करता रहा। आखिर इस परिवार की खुशियों और एक अजन्मे बच्चे से पिता के प्यार को ये छाया ही निगल गई। क्या नक्सली कोंद्रा परिवार और उस अजन्मे बच्चे के गुनहगार नहीं हैं।

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