Friday, January 11, 2013

बूंद-बूंद के लिए तरसते महाराष्ट्र को 778 करोड़ की सहायता

मुंबई। 1972 के बाद पहली बार महाराष्ट्र सबसे बड़े सूखे की चपेट में है। करीब आधा महाराष्ट्र बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहा है। केंद्र सरकार ने नेशनल डिजास्टर फंड से महाराष्ट्र को 778 करोड़ रुपये की सहायता राशि को मंजूरी दी है।
महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जिसकी गिनती देश के सबसे धनी सूबों में होती है। समृद्धशाली कहे जाने महाराष्ट्र में पिछले साल बारिश तो हुई लेकिन राज्य की 125 तहसील प्यासी ही रह गईं। इन इलाकों में लगातार बढ़ रही पानी की किल्लत ने अब सूखे का भयानक रूप अख्तियार कर लिया है। हालात का जायजा लेने IBN7 की टीम महाराष्ट्र और कर्नाटक सीमा से सटे सांगली जिले के जत तहसील में पहुंची जहां सूखे ने इलाके की पूरी सूरत ही बदल डाली है।
महाराष्ट्र के जत, आटपाडी, कवठे-महांकाल, म्हसवड ऐसे इलाके हैं जहां पिछले कई सालों से लगातार कम बारिश होती आ रही है। लेकिन इस साल तो यहां मॉनसून पूरी तरह से गायब रहा। जिसका नतीजा इलाके में गन्ना, हल्दी, केले की फसलें पानी ना मिलने से बर्बाद हो गईं। तालाब, नदियां, नाले, कुएं सभी से पानी गायब हो गया।
भूमि किसान मनोहर ने अपना दुख बताते हुए कहा कि इधर रोजगार गारंटी स्कीम के काम नहीं चल रहे हैं। डैम का पानी स्टॉक करके रखा हुआ है। बिजली कनेक्शन काटे जा रहे हैं। लोगों को, जानवरों को पीने के लिए पानी नहीं है। इसीलिए लोग पुणे, मुंबई, बारामती जा रहे हैं।
वहीं बीड़ जिले के आष्टी तहसील में पानी ने मिलने से करीब 9 हजार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन बंजर हो गई है। बीड़ जिले में खेती के साथ साथ दूध का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, लेकिन जिस जमीन पर फसल ही नहीं पैदा हो रही है वहां चारा कहां से पैदा होगा इसलिए दूध उत्पादन भी घट चुका है। यहां लोग एक एक बूंद पानी बचाने की जुगत में लगे हैं। आष्टी के किसान लक्ष्मण काकड़े का कहना है कि पीने के लिए पानी नहीं, चांदनी बांध का पानी भी सूख गया इसलिए हम खेत पर रहने के लिए आए।
सूखे का सबसे ज्यादा असर मराठवाड़ा में है। इसी मराठवाड़ा मे माढा इलाका है जो कि महाराष्ट्र में सबसे प्रभावशाली नेता और केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का चुनाव क्षेत्र है। आमतौर पर कोई भी नेता अपने वोट बैंक को संभालने के लिए चुनाव क्षेत्र में काम करने की कोशिश करता रहता है। लेकिन कृषि मंत्री के चुनाव क्षेत्र में लोगों को जो पानी मिल रहा है उसका रंग देखकर तो जानवर भी मुंह फेर लें लेकिन क्या करें लोग इसी पानी को पीने को मजबूर हैं।
सोलापुर के माढ़ा की रहने वाली नीलम खंडागले ने कहा कि जी हां, हम यही पानी पीते है। ये पानी जो भी रंग का है पीना ही पड़ता है, हरा हो या पीला क्योंकि दूसरा पानी है ही नही। पानी का पंप बंद पड़ चुका है।
मुद्दे की तलाश में भटक रही बीजेपी ने पानी किल्लत को लेकर ही सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र में बीजेपी के महासचिव सुजित सिंह ठाकुर ने बताया कि बारिश के दौरान कनाल से पानी छोड़ा नहीं जाता। जबकि ये नियम है लेकिन इन्होंने मराठवाडा को पानी देने के बजाए पानी कलान में छोड़ा। जिससे आज मराठवाडा में पानी नहीं है और इससे लोग दूसरी जगह जाने लगे है।
विपक्ष के आरोपों के बाद अचानक सरकार को भी सूखे से निपटने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत महसूस होने लगी है। मदद और पुनर्वास मंत्री पतंगराव कदम का कहना है कि मराठवाड़ा की स्थिति वाकई में काफी खराब है। मै खुद वहां पर जानेवाला हूं। पीने के पानी के लिए हम प्राथमिकता देंगे। उसके बाद उद्योग और खेती के लिए पानी दिया जाएगा।
मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र के कई इलाकों मे इस साल औसत से 59 फीसदी कम बारिश हुई है। इन इलाकों को पानी सप्लाई करनेवाले बांधों में भी औसत से 20 से 25 फीसदी कम बारिश हुई है। पानी की किल्लत इस कदर बढ़ी है कि खुद मुख्यमंत्री साढ़े तीन लाख की आबादी वाले जालना शहर को ही दूसरी जगह बसाने की बात करने लगे हैं।
पानी किल्लत के मुद्दे को विपक्षी दलों ने राजनीतिक मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है। यही वजह है कि महाराष्ट्र में इस वक्त आम आदमी को पानी किल्लत की और सत्ताधारी पार्टीयों के नेताओं को अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता सताने लगी है।
महाराष्ट्र में जारी पानी संकट का सबसे ज्यादा असर यहां के किसानों पर है। महाराष्ट्र के 6,250 गांवों में सूखा घोषित है। सूखे के चलते इन गावों में बसने वाले किसानों के सपनों ने बेमौत दम तोड़ दिया है। इन गांवों में से एक है उस्मानाबाद जिले का परांडा गांव, मराठवाड़ा के इस गांव में रहनेवाले कोंडिबा जाधव ने सपना देखा था कि गन्ने की पैदावार से वो अपना कर्जा कम करने की कोशिश करेंगे। कोंडिबा के घर का हर सदस्य कुछ ना कुछ काम करता है। बेटे दूसरों की खेती पर जाकर मजदूरी करते हैं, और भिकाजी अकेले ही अपने खेत में पसीना बहाते हैं। लेकिन इस बार किस्मत के साथ साथ कुदरत भी ऐसी रूठी कि सूखे ने कोंडिबा की सारी फसल बर्बाद कर दी। कर्ज कम होने के बजाए और कई गुना और बढ़ गया।
किसान बाबू काले ने कहना है कि तीन एकड़ में मैंने गन्ना लगाया। रिश्तेदारों से कर्जा लेकर बीज, खाद खरीदा। डेढ़ लाख रुपए खर्च कर चांदनी डैम से यहां तक पाइपलाइन डाली। डैम में पानी आया ही नहीं तो पाइपलाइन भी बेअसर रही। बच्चों की शिक्षा का खर्च पूरा नहीं कर पा रहे थे इसलिए उसे स्कूल से निकाल लिया। गन्ने के पैसों से बेटी का ब्याह करने का सोचा था लेकिन फसल आई ही नहीं।
महाराष्ट्र के कृषि मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल ने बताया कि खरीफ की फसलों की स्थिती अच्छी है। रबी की फसलों पर जरूर इसका असर हुआ है। नागपुर मे हुए शीतकालीन सत्र के दौरान हमने किसानों के कर्जे को रिशेड्युल कराने के बारे में बात की थी। रबी की फसलों की बारे मे रिपोर्ट 15 जनवरी तक प्राप्त होगी उसके बाद निर्णय लिया जाएगा।
महाराष्ट्र में सूखा पड़ना कोई नहीं बात नहीं। लेकिन इस बार अगर कुछ नया है तो ये कि यहां कुदरत का कहर और तेज हो गया है। ये हाल तब है जब महाराष्ट्र में सूखा राहत संबंधी देश का सबसे बड़ा कार्यक्रम चलाया जा रहा है। मोटे तौर पर इस सूखे के दो बड़े कारण नजर आ रहे हैं पहला, कम बारिश और दूसरा, खुद इंसान। दरअसल, इस बार मॉनसून में मराठवाड़ा और पश्चिमी महाराष्ट्र में औसत की आधी भी बारिश नहीं हुई। नतीजा ये रहा कि पानी रोककर स्टॉक बनाने वाले बांधों में भी जल स्तर घटकर चिंताजनक स्थिति मे पहुंच गया।
महाराष्ट्र में मराठवाड़ा के 11 बड़े बांधों में दिसंबर 2011 तक करीब 61 फीसदी पानी था। लेकिन दिसंबर 2012 में इन बांधों में सिर्फ 16 फीसदी ही पानी मौजूद था। अगर छोटे बड़े सभी बांधों की बात की जाए तो 2011 में मराठवाड़ा के बांधों में 58 फीसदी पानी मौजूद था, जबकि 2012 में सिर्फ 19 फीसदी पानी ही बचा। पूरे महाराष्ट्र की बात करें तो 2011 में बांधों में 72 फीसदी पानी था जबकि पिछले साल सिर्फ 59 फीसदी पानी मौजूद था।
ये पानी के बेजा इस्तेमाल का ही नतीजा है कि पिछले कुछ सालों में भूगर्भ में जलस्तर 20 फीट से 200 फीट तक गिर गया है। जमीन में मौजूद पानी का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई और पीने के लिए इस्तेमाल किया गया। लेकिन पानी दोबारा जमीन में कैसे जाएगा, इंसान इस सवाल को ही भूल गया।
दापोली कृषि विद्यापीठ के प्रमुख कृषि अभियंता दिलीप महाले ने सूखे के बारे में बताते हुए कहा कि आप जिन इलाकों के बारे में पूछ रहे है, उस मराठवाड़ा और पश्चिमी महाराष्ट्र में अच्छी बारीश नही हुई है। जुलाई अगस्त के महीने में तो औसत से भी कम बारिश हुई है। हम सूखे पर उपाय योजना नहीं कर सकते, अगर वो पहले करते तो इसकी तीव्रता हम कम कर पाते।
देश में कुल चीनी का 66 फीसदी उत्पादन करने वाले महाराष्ट्र में गन्ने की फसल किसानों के लिए आय का बड़ा जरिया है। लेकिन गन्ने की फसल के लिए पानी ज्यादा लगता है। ऐसे में किसान मुनाफा कमाने के चक्कर में जायज-नाजायज हर तरीके से खेती को पानी देता रहता है। खेती का ये रिवाज बदलने की कोशिश किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं की। वजह साफ है सत्ताधारी हो या फिर विपक्षी दल सभी पार्टियों की आर्थिक रीढ़ यहां की कोऑपरेटिव शुगर फैक्ट्रियां मानी जाती हैं। लेकिन ये स्थिति तो सालों साल महाराष्ट्र में मौजूद थी, तो ऐसा क्या हुआ कि इस साल हालात इतने बदतर हो गए। दरअसल इसका एक बड़ा कारण है सिंचाई घोटाला। महाराष्ट्र में जल आपूर्ति के लिए सिंचाई योजनाएं शुरू तो हुईं लेकिन वो सालों साल अधूरी रहीं।
जल विज्ञानी बुधाजीराव मुलीक ने बताया कि सरकार की मानें तो करोड़ों रूपए खर्च करने के वाबजूद सूखे से निपटने के लिए और 1100 करोड़ रूपयों की जरूरत है। स्थिती बदलने के लिए सरकार पैसों की नदी तो बहा रही है, लेकीन सरकारी कागजादों से शुरू होने वाली ये नदी कहां जाती है इसका किसी को पता ही नही चलता।
सूखे की सबसे ज्यादा मार झेल रहे मराठवाड़ा में 13 बड़ी, 19 मध्यम और 306 छोटी सिंचाई परियोजनाएं चल रही हैं। इन 338 योजनाओं की कीमत 7035 करोड़ रुपए थी, लेकिन काम पूरा ना होने की वजह से अब इन्हें पूरा करने के लिए और 5,512 करोड रुपयों की जरूरत है। मराठवाड़ा की एक सबसे बड़ी परियोजना भीमा-सीना नदी के कनाल खोदने की थी, जो पिछले 20 सालों से लटकी पड़ी है। यही हाल पश्चिम महाराष्ट्र का भी है। यहां 155 योजनाएं अधूरी पड़ी हुई हैं। जिसकी कीमत पहले 4,195 करोड़ थी जो अब बढ़कर 9,116 करोड़ तक पहुंच गई है। खुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मानते हैं कि आधी अधूरी सिंचाई योजनाओं की वजह से महाराष्ट्र में स्थिति गंभीर बनी।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि महाराष्ट्र में सिंचाई परियोजनाएं तो बनीं, लेकिन उनका सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया गया। किसानों ने पानी का मनमाने तरीके से इस्तेमाल किया। जिससे अमीर किसानों को कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ा लेकिन गरीब किसान पूरी तरह से बर्बाद हो गया। उद्योगों की बढ़ती संख्या के चलते खेती का पानी शहरों की तरफ मोड़ दिया गया। जिसका नतीजा आज महाराष्ट्र का आधे से ज्यादा हिस्सा सूखे की चपेट में हैं।

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