फिल्म विश्वरूपम पर पाबंदी से कमल हासन आहत
हैं। लेकिन कलाकारों और साहित्यकारों की अभिव्यक्ति का गला घोंटने का ये
पहला मामला नहीं है, कभी सामाजिक तो कभी धार्मिक भावनाएं आहत होने के नाम
पर फिल्मों का विरोध होता रहा है। पाबंदिया लगती रही हैं। खास बात ये है कि
राजनेताओं ने इस सोच को खारिज करने के बजाय उल्टा हवा ही दी है। आइए एक
नजर डालते हैं लोकतंत्र होने के बावजूद देश में कैसे अभिव्यक्ति की आजादी
पर होते रहे हैं आघात।
1. साल 2011 में सिंघम फिल्म के डायलॉग्स की वजह से विवाद खड़ा हुआ, कर्नाटक के कई इलाकों में ये फिल्म रिलीज नहीं हो पाई।
2. साल 2011, आरक्षण फिल्म को उत्तर प्रदेश और पंजाब में प्रतिबंधित किया गया
3. साल 2010, फिल्म माई नेम इज खान, शिवसेना ने इस फिल्म पर महाराष्ट्र में जमकर हंगामा किया, थियेटरों में तोड़ फोड़ की गई।
4. साल 2009 में आई फिल्म बिल्लू, सैलून और पार्लर एसोसिएशन के विरोध के बाद फिल्म के नाम से बार्बर शब्द हटाया गया।
5. जोधा-अकबर जो कि साल 2008 में आई थी। इस फिल्म का राजस्थान की कर्णी सेना ने विरोध किया और विश्व हिंदू संगठन ने भी बवाल मचाया।
6. 2007 में आई फिल्म परजानिया, गुजरात दंगों पर बनी फिल्म के गुजरात में प्रदर्शन पर रोक लगी।
7. साल 2006 में फिल्म फना, गुजरात में फिल्म पर प्रतिबंध लगाया गया।
8. साल 2005 में आई फिल्म वाटर, विधवाओं की जिंदगी पर बन रही फिल्म की वाराणसी में हो रही शूटिंग को बीच में ही रोकना पड़ा।
9. जो बोले सो निहाल (2005), पंजाब में सिख संगठनों का विरोध, धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप।
10.
1998 आई फिल्म फायर, महिलाओं के समलैंगिक रिश्तों पर बनी इस फिल्म का
शिवसेना ने विरोध किया, सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बावजूद महाराष्ट्र
में रिलीज मंं अड़चन।
अब कमल हासन की
फिल्म पर मचे विवाद के बीच फिल्म जगत और दूसरे लोग भी उनके समर्थन में आ गए
हैं। यही नहीं, अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले की बात करें तो...
सितंबर 2012- कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को कार्टून की वजह से जेल जाना पड़ा, राष्ट्रद्रोह का मुकदमा, बाद में केस वापस।
मार्च 2012- ए के रामानुजम के लेख 300 रामायण को लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय में विवाद।
फरवरी 2012- संजय काक की फिल्म जश्न ए आजादी पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने मचाया बवाल।
नवंबर 2010- अरुंधति राय के साथ एक सेमिनार में बदसलूकी।
दिसंबर 2007- एम एफ हुसैन की पेंटिंग पर शिवसैनिकों ने मचाया उत्पात।
सवाल है कि आखिर कब ये सांस्कृतिक आतंकवाद खत्म होगा। कब बेवजह के ये बवाल बंद होंगे, कब अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले बंद होंगे।
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