जानकार कहते हैं गुजरात के मुख्यमंत्री
नरेंद्र मोदी को सियासत सिखाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ही हैं। लेकिन उन्हीं
की सीखी सियासत से आज मोदी उन्हीं को पटखनी देते नजर आ रहे हैं। 2002 में
मोदी को बचाने वाले आडवाणी आज पार्टी में खुद का अस्तित्व बचाने के रास्ते
तलाश रहे हैं।
दरअसल
बीजेपी के लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी पिता और गुजरात के मुख्यमंत्री
नरेंद्र मोदी उनके पुत्र समान। लेकिन अब ये पुत्र अपने पिता समान नेता से
आगे जाना चाहता है। ये सियासत है। खेल सत्ता का है लिहाजा कब, कौन कहां हाथ
छोड़ डूबता छोड़ जाए कोई नहीं जानता। मोदी भले ही आडवाणी को नजर अंदाज कर
रहे हों। लेकिन एक वक्त था कि आडवाणी की आंखों का तारा थे मोदी। जानकारों
के मुताबिक 1975 में पहली बार नरेंद्र मोदी आडवाणी की नजर में आएं। बीजेपी
उस वक्त जनसंघ थी। और आडवाणी उसके शिखर के नेता थे। और उन्हें मोदी के
प्रबंधन और संगठन क्षमता के गुण बहुत पसंद आए थे।
दिन
बीतने के साथ ही आडवाणी और मोदी के बीच रिश्ते और मजबूत होते रहे। मोदी पर
आए हर संकट की घड़ी में आडवाणी उनकी छाया बने। आडवाणी ने संकट की हर घड़ी
में उन्हें बचाया। उन्होंने मोदी के रहनुमा की भूमिका निभाई। 1987 में
आडवाणी की ही जिद पर मोदी को अहमदाबाद के स्थानीय निकायों के चुनाव में
टिकट मिला। मोदी ये चुनाव जीत गए।
1990-
राम मंदिर को लेकर आडवाणी ने अपनी महात्वाकांक्षी रथयात्रा शुरू की।
उन्होंने मोदी को इस रथयात्रा के प्रबंध का काम सौंपा। सोमनाथ से अयोध्या
तक की इस रथयात्रा के प्रबंध से मोदी ने आडवाणी ही नहीं बल्कि पार्टी के कई
बड़े नेताओं को प्रभावित किया।
1991
में मोदी ने आडवाणी को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वो गांधीनगर से
लोकसभा चुनाव लड़े। जानकार कहते हैं कि इस सीट से बीजेपी की तरफ से लड़ने
वाले शंकर सिंह वाघेला को मोदी पसंद नहीं करते थे इसलिए उन्होंने ये चाल
चली। इस चाल ने आडवाणी और उनके बीच के संबंध को भी मजबूत कर दिया। 1995 में
आडवाणी के कहने पर ही मोदी को पार्टी का राष्ट्रीय सचिव बना दिया गया।
1998 में आडवाणी ने ही मोदी को राष्ट्रीय महासचिव बनवाया।
उसी
वक्त गुजरात में केशुभाई सरकार की स्थिति खराब होने लगी। राज्य में हुए
उपचुनावों में उन्हें कांग्रेस के हाथों हार का सामना करना पड़ा। बीजेपी ने
इसके लिए रास्ता निकाला। असल में ये रास्ता आडवाणी ने ही निकाला था।
उन्होंने नरेंद्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाने का सुझाव दिया। और
नरेंद्र मोदी बिना कोई चुनाव लड़े गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए।
2001
में नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल ली। लेकिन
उनके मुख्यमंत्री बनने के पांच महीने बाद ही यानि 2002 में गुजरात में दंगे
हुए। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि मोदी को हटा
दिया जाए। लेकिन आडवाणी इसके पक्ष में नहीं थे। आखिरकार आडवाणी ने मोदी को
बचा लिया।
2005
में आडवाणी पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर गए। उन्हें धर्मनिरपेक्ष करार
दिया। नाराज संघ ने आडवाणी पर पार्टी के अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव बनाया।
हर मुश्किल में साथ देने वाले आडवाणी के लिए मोदी नहीं खड़े हुए।
2009
तक आडवाणी और मोदी के बीच ये खाईं और गहरी हो गई। आम चुनावों में आडवाणी
बीजेपी के पीएम पद के प्रत्याशी थे। लेकिन गुजरात की कई सभाओं में ऐसा हुआ
कि आडवाणी से पहले मोदी मंच से बोलते। और जैसे ही आडवाणी मंच से बोलने के
लिए खड़े होते कार्यकर्ताओं की भीड़ छंटने लगती।
2011
में आडवाणी ने पोरबंदर से भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ यात्रा निकालने
वाले थे। लेकिन उसे से कुछ समय पहले ही मोदी ने सद्भावना यात्रा शुरू कर
दी। इससे नाराज आडवाणी ने अपनी यात्रा बिहार से शुरू की।
हाल
के दिनों में भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री में अटल की छवि देखकर
उन्होंने मोदी की खिलाफत को खुलकर हवा देनी शुरू की। मोदी के विकास को मध्य
प्रदेश के विकास से कम बता कर उन्होंने सीधे मोदी से दो दो हाथ करने की
ठान ली। लेकिन अब इसका अंत मोदी उदय के साथ होता नजर आ रहा है।
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