मनमोहन कैबिनेट में विस्तार और कांग्रेस
पार्टी के संगठन में फेरबदल के साथ कुछ सवाल भी खड़े हुए हैं। सवाल ये है
कि बुजुर्ग नेता शीशराम ओला को कैबिनेट मंत्री क्यों बनाया गया। क्या
उन्हें इसलिए जगह दी गई ताकि राजस्थान चुनाव में जाट वोट में असंतोष न
फैले। क्या ये पार्टी में किसी भी संभावित कलह को रोकने की कोशिश है। क्या
इसी नजरिए से सीपी जोशी को राजस्थान से दूर भेज दिया गया। सच जो भी हो
लेकिन जहां संगठन में युवा चेहरों पर तरजीह नजर आती है, वहीं कैबिनेट
विस्तार के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती। सवाल है कांग्रेस की इस
रणनीति के पीछे क्या है?
रविवार
को संगठन में फेरबदल और सोमवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ। ये
कांग्रेस की 2014 की रणनीति का इशारा है। वो रणनीति जिस पर राहुल गांधी की
छाप बताई जा रही है। जयपुर चिंतन शिविर में पार्टी उपाध्यक्ष बनने के बाद
राहुल गांधी ने संगठन को नए सिरे से खड़ा करने का बीड़ा उठाया था। इसी का
नतीजा है कि एक तरफ जहां संगठन में फेरबदल किया गया। दूसरी तरफ मनमोहन
कैबिनेट का विस्तार किया गया है।
कैबिनेट
विस्तार में आठ चेहरों ने मंत्री पद की शपथ ली है। मनमोहन मंत्रिमंडल के
नए चेहरे में ऑस्कर फर्नांडीस, गिरजा व्यास, डॉक्टर के एस रॉव और शीशराम
ओला को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। जे डी सीलम, मानिक राव गावित, ईएनएस
नचियप्पन और संतोष चौधरी को राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है। कैबिनेट
विस्तार के पीछे इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव
की रणनीति की छाप है।
राहुल
गांधी ऐसे बाजीगर हैं, जो 2004 में सियासत के आने के कांग्रेस के संगठन
में सधे अंदाज में अपनी रणनीति का जादू बिखेर रहे हैं। उन्हें पीएम बनाने
की बार-बार मांग उठी है लेकिन राहुल गांधी अब तक इस जिम्मेदारी से इनकार
करते आए हैं। कैबिनेट विस्तार के बाद प्रधानमंत्री ने मीडिया से बातचीत में
कहा कि राहुल गांधी उनकी जिम्मेदारी संभालने के काबिल हैं। सवाल ये है कि
क्या 2014 के चुनाव से पहले इसे राहुल गांधी को बड़ी भूमिका देने की शुरुआत
माना जाए?
2014
की जंग के मद्देनजर एक तरफ नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें बीजेपी का अघोषित
पीएम उम्मीदवार माना जाता है, दूसरी तरफ राहुल गांधी कांग्रेस के बड़े
चेहरे हैं। सवाल ये है कि क्या कांग्रेस मोदी बनाम राहुल जंग की तैयार कर
रही है। क्या कैबिनेट विस्तार के पीछे भी यही रणनीति काम कर रही है। माना
जा रहा है कि जाट समुदाय से आने वाले शीश राम ओला को राजस्थान के विधानसभा
चुनाव के मद्देनजर कैबिनेट में जगह मिली है। गिरजा व्यास के आने के बाद
सरकार में महिला कैबिनेट मंत्रियों की संख्या 3 हो गई है।
कैबिनेट
विस्तार में आंध्र प्रदेश को 1 कैबिनेट मंत्री और 1 राज्य मंत्री मिला है,
जिसे राज्य में पार्टी की स्थिति बदलने की कोशिश माना जा रहा है। जाहिर है
कैबिनेट विस्तार में राहुल गांधी के मिशन 2014 का पूरा ख्याल रखा गया है।
रविवार को संगठन में हुए फेरबदल में भी इस रणनीति का खास ख्याल रखा गया है।
अजय
माकन मनमोहन मंत्रिमंडल से बाहर हो गए हैं। उन्हें संगठन में जगह मिली है।
वो पार्टी का युवा चेहरा हैं और पार्टी के मीडिया सेल की अगुवाई करेंगे।
दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनाव के नजरिए से भी उन्हें अहम जिम्मेदारी मिली
है। राहुल गांधी की मिशन 2014 की बाजी में युवाओं की खास जगह है, तो
पुराने दिग्गजों के तजुर्बे को भी नजरअंदाज नहीं किया गया है। कैबिनेट से
संगठन में आने वाला एक और चेहरा सीपी जोशी भी हैं। सीपी जोशी को बिहार का
प्रभार दिया गया है, जहां जेडीयू ने बीजेपी से 17 साल पुराना नाता तोड़ा
है। कयास हैं कि 2014 में राहुल गांधी जो बाजी खेलना चाहते हैं, उसमें
जेडीयू पर डोरे डाले जा सकते हैं। खुद राहुल गांधी जेडीयू की प्रशंसा कर
चुके हैं।
जेडीयू
मोदी के विरोध का नारा बुलंद कर बीजेपी से अलग हुई है। अगर जेडीयू के साथ
कांग्रेस का किसी भी तरह का तालमेल होता है, या कोई समझदारी बनती है, तो
इसे राहुल गांधी की बाजीगरी का बड़ा कमाल माना जाएगा। मिशन 2014 के
मद्देनजर कांग्रेस संगठन में फेरबदल पर पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की
छाप दिखती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राहुल की नई टीम का जो
खाका खींचा है, उसकी नई कार्यकारिणी में 21 सदस्य हैं। इसमें नतीजे देने
वाले पुराने दिग्गज हैं तो नई हैसियत बनाने वाले नौजवान चेहरे भी हैं।
दिलचस्प
है कि ये बदलाव रविवार को हुआ जब बीजेपी जेडीयू के अलग हो जाने से जूझ रही
थी। बड़े बदलाव को धीरे से करने का ये राहुल का खास अंदाज है। नरेंद्र
मोदी से बिल्कुल जुदा अंदाज जिनका हर कदम मीडिया में बड़ी खबर बनता है।
जाहिर है 2014 का मुकाबला दोनों के जुदा अंदाज का इम्तेहान भी साबित होगा।
2014
का चुनाव देश को नई दिशा दे सकता है। कई सर्वे मानते हैं कि साफ बहुमत न
होने की स्थिति में किसी तीसरे गठबंधन की तस्वीर उभर सकती है। हालांकि
नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी का चुनाव प्रचार कांग्रेस के तख्तापलट
का खाका खींच रहा है। दूसरी तरफ राहुल गांधी ने यूपीए सरकार की कामयाबियों
और कांग्रेस के एजेंडे को आगे करने पर बाजी लगाई है। माना जा रहा है इसी
मकसद के लिए सरकार और संगठन को नए सिरे से संवारा गया है। किसी बाजीगर की
तरह राहुल गांधी कांग्रेस की नई रणनीति रच रहे हैं, लिहाजा उनकी टीम के
पैगाम पर देश की निगाह है।
राष्ट्रीय
कार्यकारिणी में सबसे बड़ा बदलाव राहुल के करीबी माने जाने वाले मधुसूदन
मिस्त्री हैं। उन्हें उत्तर प्रदेश प्रभारी और केंद्रीय चुनाव समिति का
अध्यक्ष बनाया गया है। राहुल की नई टीम में उनके विश्वस्त कहे जाने वाले
मोहन प्रकाश को मध्यप्रदेश की कमान मिली है, जहां इस साल के अंत तक
विधानसभा चुनाव हैं। कांग्रेस में अंबिका सोनी को महसचिव बनाया गया है जो
कांग्रेस अध्यक्ष के दफ्तर की प्रभारी होंगी। युवा चेहरे अजय माकन कांग्रेस
के मीडिया प्रभारी होंगे। 2012 में यूपी में खराब प्रदर्शन के बाद
दिग्विजय सिंह को यूपी से हटाकर आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की जिम्मेदारी दी
गई है।
कांग्रेस
की नई कार्यकारिणी में अलग-अलग इलाकों के प्रतिनिधित्व का ख्याल रखा गया
है तो जातीय समीकरण को बरकरार रखते हुए उसे धार देने की कोशिश की गई है।
दूसरी तरफ मार्च में राजनाथ सिंह ने बीजेपी की नई टीम का ऐलान किया था,
जिसमें मोदी की पसंद के कई चेहरे थे। मसलन, बीजेपी में यूपी का प्रभार मोदी
के करीबी अमित शाह को मिला है। कांग्रेस के महिला चेहरों को जवाब देने के
लिए बीजेपी में इस बार मोदी की करीबी स्मृति ईरानी भी हैं, वो उपाध्यक्ष
बनाई गई हैं। वरुण गांधी भी अब महासचिव हैं जो कांग्रेस के गढ़ सुल्तानपुर,
अमेठी, रायबरेली में परेशानी खड़ी कर सकते हैं। गोवा में मोदी को बीजेपी
के चुनाव प्रचार की कमान मिलने के बाद कांग्रेस चाहे या न चाहे लेकिन 2014
की जंग राहुल बनाम मोदी में बदलती जा रही है।
शख्सियत
की जंग में मोदी छा जाने का हुनर जानते हैं, लिहाजा कांग्रेस मोदी बनाम
राहुल की जंग सिरे से खारिज कर देती है। खुद राहुल गांधी भी मोदी पर बयान
देने से बचते हैं। ये उनकी बाजीगरी का खास पहलू है। माना जा रहा है कुशल
चुनाव प्रबंधन और प्रशासनिक काबलियत वाले मोदी को कांग्रेस बारीक स्तर पर
तैयार रणनीति से पछाड़ना चाहती है। राहुल इसके लिए देश भर में दौरे कर रहे
हैं। संगठन में ऐसे चेहरों को पहचानने की कोशिश में हैं, जिन पर जीत की
बाजी लगाई जा सके। इस मकसद में मोदी की वजह से होने वाला संभावित जातीय
ध्रुवीकरण भी कांग्रेस का मददगार बनेगा।
उत्तरप्रदेश
में 2012 का विधानसभा चुनाव याद करें। याद करें राहुल गांधी का धुंआधार
चुनाव प्रचार। याद करें कि 2012 की जंग कैसे माया बनाम राहुल की जंग में
बदल गई। और अंत में याद करें नतीजे। कांग्रेस को 403 सीटों में से महज 28
सीटें मिलीं। कांग्रेस ने बयान दिया कि यूपी जीतना उसका मकसद ही नहीं था।
जबरदस्त प्रचार से सूबे में कांग्रेस का माहौल बना। लगभग खात्मे के करीब
पहुंचे संगठन को राहुल खड़ा करने में कामयाब रहे।
राहुल
की बाजीगरी बकमाल है। सामने कुछ दिखता है। परदे के पीछे से कोई और रणनीति
सामने आती है। बीजेपी में जहां नरेंद्र मोदी 2014 के लिए प्रधानमंत्री पद
के अघोषित उम्मीदवार हैं, वहीं कांग्रेस में राहुल पूरे माहौल के बावजूद
पीएम पद का प्रत्याशी बनने को तैयार नहीं। उनका लक्ष्य देश में कांग्रेस के
छिन्न-भिन्न पड़ चुके आधार को दोबारा खड़ा करना है।
इस
स्क्रिप्ट में यूपी सबसे बड़ा किरदार है, जहां 80 लोकसभा सीटें हैं। यही
वजह है कि फेरबदल की बाजी से राहुल ने छुपा हुआ पत्ता बाहर निकाला है।
मधुसूदन मिस्त्री को उत्तर प्रदेश और केंद्रीय चुनाव समिति का प्रभारी
बनाया गया है। हाल ही में कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत से मधुसूदन
मिस्त्री को नई पहचान मिली है। उनसे यूपी में भी कमाल दोहराने की उम्मीद की
जा रही है। हालांकि यूपी में न कांग्रेस की चुनौती आसान है, न मधुसूदन
मिस्त्री की। बीजेपी की तरफ से यूपी में नरेंद्र मोदी के खास सिपहसलार अमित
शाह सामने हैं। दिलचस्प है कि उनके मुकाबले के लिए उतरे मधुसूदन मिस्त्री
भी गुजरात के साबरकांठा से लोकसभा सदस्य रहे हैं।
2012
में गुजरात विधानसभा चुनाव में मोदी की जीत के बावजूद मिस्त्री की अगुवाई
में साबरकांठा में कांग्रेस को शानदार जीत मिली। उन्हें मोदी के सिपहसलार
अमित शाह की जोड़ का चुनावी रणनीतिकार माना जाता है। खास बात ये है कि अगर
मोदी संघ से हैं तो राहुल का दांव बन चुके मिस्त्री के भी संघ से रिश्ते
रहे हैं। वो संघ के स्वयंसेवक रहे गुजरात के पूर्व सीएम शंकर सिंह वाघेला
के साथ बीजेपी से अलग हुए थे। यानी बीजेपी और संघ की रणनीति को करीब से
जानने वाले मिस्त्री, मोदी-अमित शाह के दांवपेंच समझ कर उसकी काट तैयार कर
सकते हैं।
पिछड़े
वर्ग से आने वाले मधुसूदन मिस्त्री की पृष्ठभूमि एनजीओ की भी रही है, जो
आम आदमी के कांग्रेस के नारे के करीब है। यूपी की इस जंग का सच ये भी है कि
बीजेपी और कांग्रेस यूपी में तीसरे और चौथे नंबर की पार्टियां हैं। ऐसे
में माना जा रहा है कि राहुल की बाजी अमित शाह की रणनीति की काट से ज्यादा
कांग्रेस को चुनावी सफलता दिलाने पर टिकी है।
2012
के विधानसभा चुनाव में गांधी परिवार के गढ़ अमेठी और रायबरेली में भी उसे
हार मिली। रायबरेली की पांच सीटों में उसे एक भी सीट नहीं मिली। अमेठी की
पांच सीटों में उसे 2 सीट मिलीं जबकि 2007 के विधानसभा चुनाव में दोनों जगह
से वो 7 विधानसभा सीट जीतने में कामयाब हुई थी। अमेठी लोकसभा क्षेत्र
सुल्तानपुर जिले में आता है, जहां बीजेपी के वरुण गांधी हाल ही में रैलियां
कर अपने इरादे दिखा चुके हैं। वहीं अमित शाह को यकीन है कि बीजेपी का
भविष्य यूपी ही बनाएगा।
अमित
शाह जोश में हैं लेकिन सच ये भी है कि यूपी को वो राहुल से बेहतर नहीं
जानते। 2004 से सियासत में उतरने के बाद इस बाजीगर ने यूपी का चप्पा-चप्पा
छाना है। यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई जैसे संगठन के जरिए वो जमीनी स्तर पर
कांग्रेस को खड़ा कर रहे हैं, जिसके नतीजे 2014 में दिख सकते हैं।
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