गोवा में बीजेपी की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी में 2014 में बीजेपी के चुनाव प्रचार की कमान नरेंद्र मोदी के
हाथ आ गई है। इसके साथ ही बीजेपी में लालकृष्ण आडवाणी के पीएम पद के
उम्मीदवार बनने की सारी संभावना खत्म हो गई है। माना जा रहा है कि नरेंद्र
मोदी ने ही वो पृष्ठभूमि तैयार की जिसने आडवाणी को बीजेपी के अतीत पुरुषों
की जमात में खड़ा कर दिया।
कभी
बीजेपी के लौह पुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी पार्टी की राष्ट्रीय
कार्यकारिणी की बैठक से कभी अनुपस्थित नहीं रहे लेकिन जून के पहले हफ्ते
में हुई गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान उनका पेट खराब हो गया।
सियासी जानकारों का मानना था कि पेट खराब होने से कहीं बड़ी वजह गोवा की
राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नरेंद्र मोदी का छा जाना था। लालकृष्ण आडवाणी कई
बार इशारा कर चुके थे कि उन्हें शिष्य से प्रतिद्वंद्वी बन चुके नरेंद्र
मोदी की बड़ी हैसियत स्वीकार नहीं। वहीं गोवा में पार्टी के हर कोने से
नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव के लिए पीएम पद का प्रत्याशी बनाने की मांग
उठ रही थी। ऐसी मांग गोवा से दूर दिल्ली में आडवाणी के घर के बाहर भी सुनाई
दे रही थी।
'नरेंद्र
मोदी आर्मी' नाम के गुमनाम संगठन के झंडे तले मोदी-समर्थक होने का दावा कर
रहे प्रदर्शनकारी मोदी के लिए आडवाणी से रास्ता खाली करने की मांग कर रहे
थे। प्रदर्शन पर सियासी गलियारों में आलोचना शुरू हुई तो बीजेपी प्रवक्ता
शाहनवाज हुसैन ने साफ करने में देर नहीं लगाई कि प्रदर्शनकारियों का बीजेपी
या मोदी से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन नरेंद्र मोदी की वजह से बीजेपी
के खिलाफ खड़े हो चुके कांग्रेसी नेता शंकर सिंह वाघेला ऐसा नहीं मानते।
एक
बयान में वाघेला ने 1996 की घटना की याद दिलाई। वाघेला ने केशूभाई सरकार
में मोदी के सुपर सीएम की तरह के बर्ताव से नाखुश होकर बगावत कर दी थी।
गांधी नगर पहुंचे अटल बिहारी वाजपेयी ने समझौता फार्मूले के तहत सुरेश
मेहता को सीएम बनवा दिया। वाघेला कहते हैं-'उस वक्त मोदी समर्थकों ने अटल
जी की कार को रास्ते में रोक लिया था। वो नारेबाजी कर रहे थे। प्रदर्शन की
वजह से वाजपेयी की फ्लाइट छूट गई। इसीलिए हाल ही में आडवाणी के घर हुई
नारेबाजी से मैं हैरान नहीं हुआ। यहां तक कि आडवाणी को भी कोई शक नहीं होगा
कि नारेबाजी के पीछे कौन है।'
बीजेपी
अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी ये स्वीकार कर चुके हैं कि नरेंद्र मोदी पार्टी
सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उन्हें ये मुकाम चमत्कार से नहीं मिला है। संघ के
फुलटाइम प्रचारक से सीएम तक के 40 साल लंबे सफर में मोदी ने अपना सियासी
करिअर नफासत से तराशा। समर्थक और विरोधी दोनों कहते हैं कि मोदी जज्बाती
नहीं हैं। वो इस्पाती इरादे वाले सख्त प्रशासक और राजनेता हैं जो जानता है
कि वो क्या चाहता है, और उसे कैसे हासिल करना है।
समाजशास्त्री
और स्तंभकार विद्युत जोशी कहते हैं कि वो हर एक को कुचल कर आगे चले जाते
हैं तो आपको समझना होगा कि मोदी की राजकरण की शैली क्या है। मोदी की राजकरण
की स्टाइल को समझना है तो आपको इंदिरा गांधी को समझना होगा। इंदिरा ने भी
सब पुराने लोगों को निकाल दिया, मोदी ने भी निकाल दिया। कहा जाता है कि
इंदिरा आलोचना बर्दाश्त नहीं करती थीं, विरोधियों के लिए खड़ा होने की जगह
नहीं छोड़ती थीं। मोदी में सियासी शिकारी के ये गुण कूट-कूट कर भरे हुए नजर
आते हैं। कहते हैं उनके सियासी शिकारों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। ताजा
शिकार नीतीश कुमार हैं। लाल कृष्ण आडवाणी को बीजेपी के इतिहास में जगह मिल
चुकी है। संजय जोशी पार्टी के हाशिए पर चले गए हैं। बीजेपी से अलग होकर
गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाने वाले केशुभाई पटेल अप्रासंगिक हो चुके हैं।
गोवा
कार्यकारिणी में बीजेपी ने 2014 की कमान नरेंद्र मोदी को सौंप दी। पीएम पद
का दोबारा प्रत्याशी बनने की आडवाणी की ख्वाहिश का दम निकल गया। शिकारी का
ये खेल दिलचस्प है। दिलचस्प ये भी है कि 11 साल पहले यही गोवा था, यही
आडवाणी थे, जिन्होंने मोदी को बीजेपी से निष्कासित होने से बचाया था।
गुजरात दंगों की वजह से 2002 में गोवा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अटल
बिहारी वाजपेयी मोदी को निष्कासित करने की तैयारी कर चुके थे लेकिन आडवाणी
बीच में आ गए। वाजपेयी को झुकना पड़ा।
आज
नरेंद्र मोदी-आडवाणी के प्रतिद्वंद्वी हैं, कभी वो आडवाणी के शिष्य कहे
जाते थे। दरअसल, 1984 में दो सीट मिलने के बाद आडवाणी ने पार्टी की राज्य
इकाइयों में संगठन सचिव के पद को फिर मजबूत किया। गुजरात में मोदी संगठन
सचिव बने। उन्होंने 1987 में आडवाणी की न्याय यात्रा, 1989 में लोकशक्ति
यात्रा, 1990 में अयोध्या रथ यात्रा को सफल बनाने में जी-तोड़ मेहनत की।
नरेंद्र
मोदी को इनाम के तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर पहली बड़ी जिम्मेदारी मिली।
मुरली मनोहर जोशी ने बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर कन्याकुमारी से श्रीनगर तक
तिरंगा फहराने के लिए अखिल भारतीय एकता यात्रा की। इसका प्रबंधन मोदी को
मिला, जो जबरदस्त प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन कर बीजेपी की राष्ट्रीय
राजनीति पर छा गए। बीजेपी में मोदी का उदय हो चुका था। आडवाणी उनके साथ थे।
वरिष्ठ
पत्रकार प्रभु चावला कहते हैं कि संजय जोशी का मामला हो, सुरेश मेहता का
मामला हो, कांशी राम राणा का मामला हो या केशुभाई पटेल का मामला, हर जगह
आडवाणी जी और अटल जी मोदी के साथ खड़े रहे, उन्होंने कहा कि ये हमारा
भविष्य है।
इसके
बाद सियासत में 10 साल सीनियर गुजरात बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष शंकर
सिंह वाघेला से मोदी का टकराव शुरू हो गया। जूनियर होने के बावजूद मोदी ने
एक तुरुप चाल चल कर पार्टी में उनका कद कम कर दिया। कहते हैं कि 1991 में
आडवाणी को गांधी नगर से चुनाव लड़ने की सलाह मोदी ने ही दी थी। इस सीट से
शंकर सिंह वाघेला लड़ते थे लेकिन नई दिल्ली सीट से राजेश खन्ना के कांग्रेस
प्रत्याशी बनने के बाद आडवाणी सेफ सीट तलाश रहे थे। मोदी की ये तुरुप चाल
थी क्योंकि तब बेहद लोकप्रिय आडवाणी के गुजरात में आने से कार्यकर्ता
उत्साह में भर गए। शंकर सिंह वाघेला पिछड़ते गए।
शंकर
सिंह वाघेला मोदी के पहले सियासी शिकार बने जब 1996 में उन्हें पार्टी से
जाना पड़ा। 2001 में गुजरात भूकंप के आधे-अधूरे राहत कार्य और दो उप चुनाव
में हार की वजह से केशुभाई की गुजरात के सीएम के तौर पर विदाई हो गई। कहते
हैं अक्टूबर 2001 में आडवाणी की वजह से ही मोदी चुनाव लड़े बिना ही सीएम बन
गए। एक के बाद एक चुनावी सफलता से उनकी सियासी महत्वाकांक्षा बढ़ती गई।
तभी पाकिस्तान यात्रा के दौरान आडवाणी ने जिन्ना को सेकुलर करार दिया। यहीं
से रिश्ते में दरार पड़ने लगी।
2005
में जिन्ना पर दिए आडवाणी के बयान की आरएसएस-बीजेपी में जबरदस्त आलोचना
हुई। आडवाणी के समर्थन में मोदी नहीं आए, करीब तीन महीने बाद आडवाणी को
अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। 2011 में आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ पोरबंदर से
यात्रा निकालना चाहते थे लेकिन मोदी ने सद्भावना यात्रा शुरू कर दी। आडवाणी
ने अपनी यात्रा मोदी के धुर विरोधी नीतीश कुमार के प्रदेश बिहार से की।
गोवा
कार्यकारिणी से पहले बीजेपी में मोदी को पीएम बनाने की मांग जोर पकड़ने
लगी थी। आडवाणी ने मोदी की दावेदारी को कमजोर करने की आखिरी कोशिशें कीं।
ग्वालियर में कहा कि जैसे अटल बिहारी वाजपेयी विकास की कई योजनाओं को लागू
करने के बाद भी नम्र बने रहे और घमंड से दूर रहे, उसी तरह शिवराज सिंह
चौहान ने भी मध्यप्रदेश जैसे "बीमारू" राज्य की तस्वीर बदल दी। 2009 के
लोकसभा चुनाव में आडवाणी के नेतृत्व में मिली हार के बाद संघ भी मानने लगा
था कि पार्टी को नए चेहरे की जरूरत है। इस सोच ने मोदी को मजबूत कर दिया।
आखिरकार गोवा में आडवाणी उनके ताजा सियासी शिकार बन गए।
नरेंद्र
मोदी को बीजेपी की कमान मिली तो जेडीयू ने सेकुलरवाद का झंडा बुलंद कर
बीजेपी से नाता तोड़ लिया। नीतीश कुमार बिहार में अकेले रह गए हैं। उन्हें
बीजेपी के अगड़े वोटों का फायदा नहीं मिल पाएगा। साथ ही एनडीए से नरेंद्र
मोदी को चुनौती देने की हैसियत रखने वाला नेता भी बाहर हो गया है यानी पीएम
प्रत्याशी के सवाल पर अब न तो बीजेपी में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने
वाला कोई बचा, न एनडीए में। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत कहते हैं कि बिहार की
राजनीति के जो ताजा हालात हैं, ऐसा होना ही था, क्योंकि नीतीश कुमार
समाजवादी छवि के माने जाते हैं और नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगभग डेढ़ साल से
बोल रहे थे। उनकी पार्टी नहीं चाहती थी कि वो किसी ऐसे फ्रंट के संयोजक
बने, जिसके नेता मोदी हों।
जानकारों
का मानना है कि नरेंद्र मोदी अच्छी तरह समझते थे कि नीतीश सेकुलर वोट खोने
का खतरा नहीं उठा सकते। मई 2009 में लुधियाना में एनडीए की रैली में मोदी
और नीतीश मंच पर साथ-साथ दिखे, तो ये तस्वीर बिहार में बार-बार दिखने लगी
थी। नीतीश को ये नागवार गुजरा। ये तस्वीर जितनी दिखती, उनके सेकुलर वोट में
उतनी ही सेंध लगती। यही वजह है कि 2009 के आम चुनाव में नीतीश ने बिहार
में मोदी को प्रचार के लिए बिहार आने से मना कर दिया।
12
जून 2010 में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से पहले अखबारों
में लुधियाना रैली की नीतीश-मोदी की तस्वीर छपी। इससे नीतीश कुमार इतने
नाराज हुए कि गठबंधन तोड़ने की बात तक सोचने लगे। इसी के बाद 2010 के
विधानसभा चुनाव में भी नीतीश ने मोदी के प्रचार के लिए मना कर दिया। जून
2012 में नीतीश ने ये बयान भी दिया कि बीजेपी को सेकुलर छविवाले नेता को ही
पीएम पद का प्रत्याशी चुनना चाहिए।
बीजेपी
में सेकुलर छवि वाले नेता को पीएम प्रत्याशी बनाने की बात कर नीतीश ने
मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। साथ ही उन्होंने पीएम पद के प्रत्याशी
के मुद्दे पर आडवाणी के लिए जमीन तैयार करना भी शुरू कर दिया था। एनडीए में
आडवाणी को आगे बढ़ाने की नीतीश की मंशा ही नहीं बल्कि उनकी छवि भी मोदी के
लिए चुनौती बन रही थी। अगर नरेंद्र मोदी बीजेपी के विकास पुरुष बन रहे थे
तो बिहार की कायापलट करने की वजह से नीतीश कुमार भी एनडीए के सुशासन पुरुष
बन चुके थे।
गुजरात
में मोदी चुनावी सफलता की कहानी लिख रहे थे तो बिहार में नीतीश कुमार की
चुनावी सफलता भी काबिल-ए-तारीफ थी। इसमें शक नहीं है कि एनडीए में नीतीश
कुमार को मोदी के खिलाफ खड़ा करने की कोशिशें शुरू हो चुकी थीं। 3 सितंबर
2012 को आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा-मुझे लगता है कि भारत का अगला
प्रधानमंत्री गैर-बीजेपी, गैर-कांग्रेसी राजनेता होगा।
दूसरी
तरफ लोकप्रियता की लहर पर सवार मोदी भी बिहार बीजेपी में समर्थकों का आधार
बना रहे थे।। 2012 में बिहार बीजेपी ने मोदी का जन्मदिन धूमधाम से मनाया।
नवंबर 2012 में मोदी बीजेपी नेता कैलाशपति मिश्रा को श्रद्धांजलि देने पटना
गए तो पीएम-पीएम की गूंज सुनाई दी। बिहार बीजेपी में मोदी का बढ़ता असर
नीतीश को रास नहीं आ रहा था। उनका ये दर्द गठबंधन टूटने से पहले सामने आ
गया। कहा-दुआ देते हैं जीने की, दवा करते हैं मरने की। समस्या की दरअसल जड़
यही है।
नीतीश
कुमार के अलग होने के बाद अब बीजेपी की तरह एनडीए को भी नरेंद्र मोदी का
सहारा है। उनकी छवि के सहारे ही एनडीए को 2014 में बड़े कमाल की उम्मीद है।
ऐसे में नीतीश का जाना बीजेपी के लिए नुकसानदेह जरूर हो सकता है, लेकिन हर
किसी पर ये बात सही नहीं साबित होती।
No comments:
Post a Comment