उत्तराखंड में भूस्खलन और बाढ़ जैसी
प्राकृतिक आपदाएं आम हैं। जब-जब ऐसी आपदाएं आती हैं भारी तबाही होती है। इस
बार भी मॉनसून की शुरुआती बारिश अपने साथ तबाही लेकर आई। सवाल ये है कि इस
तरह की आपदाओं के लिए जिम्मेदार कौन है और क्या ऐसी आपदाएं रोकी जा सकती
हैं?
उत्तराखंड
के उत्तरकाशी, केदारनाथ, गौरीकुंड, रामबाड़ा, रूद्रप्रयाग समेत ज्यादातर
इलाकों ने मानो जल समाधि ले ली हो। अब तक जान-माल को हुए नुकसान का आकलन तक
नहीं किया जा सका है और न ही हर जगह राहत और मदद ही पहुंचाई जा सकी है।
लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाने के लिए आपदा प्रबंधन विभाग और सेना के
जवान लगातार लगे हुए हैं।
ऐसी
तबाही की सबसे बड़ी वजह हम ही हैं। दरअसल विकास की अंधी दौड़ में हम सब
इतने खो गए हैं कि हमने कुदरत के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया है। उत्तराखंड
के कई इलाकों में बिजली परियोजनाएं चल रही हैं। खनन का भी काम जोर-शोर से
चल रहा है। खनन के लिए शांत पहाड़ों में लैंड माइंस से धमाके किए जाते हैं।
इसका सीधा असर बारिश के दिनों में लैंड स्लाइड के रूप में देखने को मिलता
है। जानकारों की मानें तो 2011-12 में उत्तरकाशी में आई आपदा की तीव्रता को
बढ़ाने में कालिंदी गाड और असिगंगा पर बन रही जलविद्युत परियोजनाओं ने अहम
भूमिका अदा की थी।
गौरतलब
है कि असिगंगा में 9 मेगावाट की कालिंदीगाड परियोजना चल रही है। इसके लिए
धमाके करना, नदी में मलबा डालना और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाना आम
है। परियोजना चलाने वाली कंपनियां नदी में मलबा डालती हैं। इससे नदी का तल
लगातार ऊंचा उठता जा रहा है। बारिश के दिनों में यही ऊंचा तल विनाशकारी हो
जाता है।
इतना
ही नहीं इन परियोजनाओं के लिए बड़ी संख्या में पेड़ काटे जाते हैं। इसकी
वजह से पहाड़ों पर मिट्टी की पकड़ लगातार कमजोर होती जा रही है। बारिश के
दिनों में भूस्खलन की समस्याओं की सबसे बड़ी वजह यही है।
हर
साल भूस्खलनों की वजह से भी जान माल का जबरदस्त नुकसान होता है। उत्तराखंड
की 14 नदी घाटियों में 220 से ज्यादा छोटी-बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं। इस
वजह से नदियों को 10 से 15 किलोमीटर तक सुरंग में डाला जा रहा है। बांधों
के कारण नदियों की स्वछंदता पर खतरा मंडरा रहा है। यही खतरा बढकर इंसानो को
भी अपनी जद में ले लेता है।
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