Tuesday, March 19, 2013

डीएमके की मांग मानना केंद्र के लिए तकरीबन नामुमकिन

श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर डीएमके के केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा से मनमोहन सरकार मुश्किल में फंस गई है। अगर वो डीएमके की मांग मानती है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी खासी किरकिरी होगी। लेकिन अगर वो ऐसा नहीं करती है तो डीएमके के समर्थन से उसे हाथ धोना पड़ेगा और इससे सरकार के गिरने का भी खतरा है।
दरअसल डीएमके चाहता है कि केंद्र सरकार संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के उस प्रस्ताव का समर्थन करे जिसमें अमेरिका ने श्रीलंका में एलटीटीई के खिलाफ हुए युद्ध में मानवाधिकारों के उल्लंघन की अंतरराष्ट्रीय जांच की मांग की है। इसके अलावा डीएमके चाहता है कि भारत की संसद में भी एक प्रस्ताव पास कर श्रीलंका की इसके लिए आलोचना की जाए।
डीएमके की दोनों मांगें सरकार के लिए मानना मुश्किल ही नहीं, तकरीबन नामुमकिन हैं। भारत की ये घोषित नीति रही है कि वो दूसरे देशों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करता। डीएमके की मांग मानना इस नीति का उल्लंघन होगा क्योंकि ये श्रीलंका के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी की तरह ही देखा जाएगा।
हाल ही में पाक संसद में अफजल गुरु पर पारित प्रस्ताव का भारत की संसद ने कड़ा विरोध किया था और साफ कर दिया था कि भारत के अंदरूनी मामलों में किसी दूसरे देश की दखदंजादी उसे मंजूर नहीं होगी लेकिन अब अगर भारत की वही संसद श्रीलंका के अंदरूनी मामलों पर प्रस्ताव पास करेगी तो ये अपने आप में अजीब होगा।
दूसरी ओर अगर संयुक्त राष्ट्र में भारत अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन करता है तो हो सकता है कि कोई अन्य देश कश्मीर के मुद्दे पर जांच का ऐसा ही प्रस्ताव यूएन में लाकर भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर दे। ऐसे में साफ है कि डीएमके की किसी भी मांग को केंद्र सरकार मानने की स्थिति में नहीं है। फिलहाल वो बीच का रास्ता निकालने में लग गई है।

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