अन्ना की जनतंत्र मोर्चा यात्रा का आखिरी
दिन। 31 मार्च को अमृतसर से शुरू हुई अन्ना की यात्रा 18 दिन बाद हरिद्वार
में खत्म हो गई। अन्ना 120 शहरों और सैंकड़ों गांव में घूमे। ज्यादातर
जगहों पर मैदान खाली रहा। लोग अन्ना को सुनने नहीं पहुंचे। लेकिन कुछ जगहों
पर अन्ना को देखने-सुनने वाले लोगों की भीड़ भी जमा हुई।
अन्ना
नए मकसद के साथ निकले हैं। देश की राजनीति बदलना चाहते हैं। इस बार सवाल
सिर्फ जनलोकपाल बिल का नहीं है। संसद का स्वरुप बदलना है। राजनीति में
कूदना नहीं, राजनीति से गंदगी साफ करनी है।
अपने
नए मकसद की शुरुआत में अन्ना कितने सफल हुए। पैमाना अगर भीड़ है तो शायद
अन्ना और उनके साथियों को निराशा हाथ लगी। रालेगान सिद्दि के 75 साल के इस
नौजवान का साथ इस बार पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह दे रहे हैं। लेकिन
अन्ना के साथियों का मानना है कि अन्ना थके नहीं हैं। भीड़ को भी वो
पैमाना मानने के लिए तैयार नहीं है।
सादगी
से जीने वाले अन्ना हजारे अपने नैतिक बल और सत्याग्रह के बल पर यूपीए
सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर करने वाले अब 30 लाख से ज्यादा कीमत की बस
पर अपना अभियान चला रहे हैं। इसी बस में उन्होंने अपनी यात्रा का पहला दौर
समाप्त किया। ये अन्ना का स्टाइल नहीं है। उनकी सोच से अलग है।
दो
साल में अन्ना और अन्ना के साथियों में बड़ा बदलाव आ गया है। जानकार मानते
हैं कि अन्ना का नैतिक बल अगर अगस्त क्रांति का चेहरा था तो उसका दिमाग,
संगठन की शक्ति और आंदोलन की रणनीति अरविंद केजरीवाल की देन थी। किरण बेदी,
अनुपम खेर, आमिर खान जैसे शख्सियतों के आकर्षण ने रामलीला मैदान को आजाद
भारत के इतिहास का सबसे प्रभावशाली सामाजिक आंदोलन बना दिया। एक बड़ी वजह
शायद ये भी थी कि उस वक्त अन्ना का मकसद जनलोकपाल बिल तक सीमित था। लेकिन
समय के साथ साथी भी छूटते चले गए और जनलोकपाल का लक्ष्य भी। अन्ना ने इसे
सरकार की उदासीनता का नतीजा बताया। आगे की लड़ाई को संपूर्ण क्रांति की राह
पर ले जाने की कसम खाई। लेकिन इस बयान के पीछे एक लंबी कहानी थी।
अन्ना
आज भी भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं। लेकिन ये तारीख अन्ना आंदोलन
के इतिहास का सबसे अहम दिन है। इस दिन ने अन्ना की उस लड़ाई को औपचारिक रुप
से दो हिस्सों में बांट दिया, जिसने आजाद भारत में पहली बार मध्यमवर्ग को
इतने बड़े पैमाने पर जोड़ा था। बैठक में अन्ना के सारे साथी मौजूद
थे-अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, योगेन्द्र यादव, मनीष सिसौंदिया सहित अन्ना
की बनाई कोऑर्डिनेशन कमेटी का हर सदस्य। सामाजिक क्षेत्रों में काम कर रहे
कुछ जानी-मानी हस्तियों को भी इस दिन खास तौर पर बुलाया गया था। इस दिन ये
फैसला लेना था कि क्या अन्ना की टोली सीधे तौर पर राजनीति में उतरेगी।
अरविंद केजरीवाल यही चाहते थे।
बैठक
में सभी विकल्पों पर विचार हुआ। अरविंद और उनके समर्थक राजनीति में उतरना
चाहते थे और ये भी चाहते थे कि अन्ना उनका नेतृत्व करें। लेकिन अन्ना तैयार
नहीं थे और किरण बेदी भी उनके साथ खड़ी थीं। अन्ना सामाजिक आंदोलन के जरिए
ही राजनीति में बदलाव लाना चाहते थे। ये अन्ना और उनके सबसे चहेते सहयोगी
के बीच बड़ा मतभेद था। लेकिन ये किसी को अंदाजा नहीं था कि कांस्टिट्यूशन
क्लब के कमरे से बाहर आते ही ये मतभेद मनभेद में बदल जाएगा।
उस
बैठक के दौरान अरविंद केजरीवाल समेत कई लोगों ने अन्ना को समझाने की कोशिश
की कि राजनीति में जाए बगैर उसे साफ करना मुमकिन नहीं है। लेकिन किरण बेदी
का साफ मत था कि हमें आंदोलन के रास्ते पर ही आगे बढ़ना चाहिए। काफी
मशक्कत के बाद एक राजनीतिक प्रस्ताव तैयार किया गया। जाने-माने सामाजिक
विश्लेषक योगेंद्र यादव ने वो प्रस्ताव सभी को पढ़कर भी सुनाया। अन्ना ने
उस पर अपनी हामी भी भर दी। इसके बाद प्रस्ताव की प्रति अन्ना को बाहर जाकर
मीडिया के सामने पढ़ने के लिए दी गई। इस प्रस्ताव में लिखा था कि राजनीति
और आंदोलन समाज को बदलने के दो हथियार हैं। जिन साथियों को राजनीति में
विश्वास है, वो राजनीति करें और जिन्हें आंदोलन करना है, वो मेरे साथ रहें।
सवाल
अगर अन्ना के फैसले पर खड़े होने लगे तो उसी रात की इन तस्वीरों ने उसे और
गहरा बना दिया। आखिर आधी रात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक
उद्योगपति के बुलावे पर अन्ना किससे मिलने दिल्ली के गोल्फ गोर्स के एक
मकान पर पहुंचे। अन्ना की ये बैठक बाबा रामदेव और पूर्व सेना प्रमुख जनरल
वी के सिंह के साथ थी। राजनीति के जिस रास्ते को छोड़कर अन्ना आगे बढ़े थे,
उसी से जुड़ने के आरोप उनपर लगने लगे। हालांकि अन्ना के साथियों का दावा
है वो पहले भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे थे और अरविंद को छोड़ने के बाद
भी उनका मकसद सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की तैयारी करना था।
हर
रोज उठते सवालों ने अन्ना को परेशान कर दिया। अन्ना को लगा जैसे उनके
खिलाफ साजिश हो रही है। अन्ना के करीबी बताते हैं कि ये चर्चा भी उनके इर्द
गिर्द होने लगी कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा पालने वाले अरविंद और उनके
साथियों ने अन्ना का फायदा उठाया।
अन्ना
को इस बात का गर्व था कि उन्होंने गांधीवादी तरीकों से महाराष्ट्र में कई
मंत्रियों को इस्तीफे के लिए मजबूर किया था। लेकिन अब अन्ना को लगने लगा
जैसे दिल्ली के राजनीतिक बिसात पर उन्हें घेरने की कोशिश हो रही है। इसी
दौरान शालीन और शांत रहने वाले अन्ना ने अपना आपा भी खो दिया।
दुख
और आक्रोश से भरे अन्ना हजारे ने एक बार फिर गांधी का सहारा लिया। दिल्ली
की राजनीति के शोरगुल से दूर अन्ना अपने गांव रालेगां सिद्दि लौट गए। अन्ना
ने मौन व्रत धारण कर लिया। इस वक्त तक अन्ना के निजी सचिव रहे सुरेश पठारे
के मुताबिक अन्ना भावनात्मक रूप से टूटने लगे थे। इधर अन्ना के करिश्मे को
आंदोलन के रूप में आगे बढ़ाने के लिए उनके नए साथियों ने तैयारी शुरू कर
दी थी।
अन्ना
के पुराने साथी टीम में पड़ी फूट पर खुलकर नहीं बोलते। लेकिन ये चर्चा आम
है कि अरविंद केजरीवाल की क्षमता और महत्वाकांक्षा को अन्ना के सामने तोड़
मरोड़ कर पेश किया गया।
इस
वक्त तक भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई लड़ाई में एक नहीं कई दरार बन चुकी
थीं। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले शुरू हुए इस अभियान में किरण बेदी,
बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, स्वामी अग्निवेश, शांति भूषण सहित कई
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया था। लेकिन इन सबको एक साथ अरविंद
केजरीवाल लेकर आए थे। वो उम्र और अनुभव के लिहाज से सबसे जूनियर थे।
जानकार ये भी मानते हैं कि ऐसे संगठन में ईर्ष्या और राजनीति का घर करना स्वाभाविक था।
तमाम
खींचतान के बाद आखिरकार अन्ना ने पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी के सिंह पर
भरोसा किया। सेना प्रमुख रहते हुए जनरल सिंह ईमानदारी और हिम्मत के मिसाल
बन चुके थे। उत्तरी भारत अच्छी खासी संख्या में उनके प्रशंसक हैं। रामलीला
मैदान के बाद अन्ना को भी उत्तरी भारत में भारी जनसमर्थन का भरोसा था। यही
वजह है कि जनतंत्र यात्रा की योजना अमृतसर से हरिद्वार तक की बनाई गई।
लेकिन ये यात्रा खत्म होने के बाद भी अन्ना के लिए आगे का रास्ता तलाशने
में नाकामयाब रही।
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