Thursday, July 4, 2013

उत्तराखंड के पीड़ितों को राहत के नाम पर मिले फटे कपड़े


उत्तराखंड के अलग-अलग गांवों का जायजा लेने की लिए आईबीएन7 की तमाम टीमें लगातार मुश्किल सफर पर हैं। अपने इस सफर में टीम ऐसे ही एक गांव में पहुंचे जहां राहत देने के नाम पर मदद की आस लगाए लोगों के साथ भद्दा मजाक किया गया है। राहत के नाम पर फटे-पुराने कपड़े उत्तराखंड के गांव भेजे जा रहे हैं, कोई भी ये अंदाजा नहीं लगा सकता है कि तबाही में बर्बाद हुए लोगों पर ऐसी मदद देखकर क्या गुजरी होगी।
त्रासदी की आंखों देखी आप तक पहुंचाने की कोशिश में आईबीएन7 के संवाददाता अमित पांडे गुप्तकाशी से करीब छह से सात किलोमीटर दूर रुद्रपुर गांव में पहुंचा था। गांव वालों की समस्या से दोचार होने, उनकी तकलीफ और सरकार की कोशिशों का हाल जानने। रुद्रपुर गांव के लोगों के लोग राहत सामग्री से हैरान परेशान हैं। जो राहत सामग्री इन्हें मिली है वो इनपर टूटी विपदा का मजाक उड़ाती नजर आ रही है।
गांव के निवासी विनोद ने जब राहत सामग्री देखी तो आंखे फटी की फटी रह गई। विनोद ने कहा कि ये क्या भेजा है, ऐसा लगता है कि मजाक किया है।
केदारनाथ में इस गांव के 12 लोग मारे गए हैं। कई घरों के चिराग बुझ गए हैं। इन्हें खाना पानी चाहिए। लेकिन अब वो राहत का ये मजाक झेलने को मजबूर हैं। गुस्सा है। लेकिन किसपर जाहिर करें। सो सड़क पर ही ये कपड़े लेकर खड़े हो गए।
हर गांव की अपनी समस्या है। लेकिन इसका उपाय सरकार अभी तक नहीं खोज पाई है। रुद्रपुर के करीब ही एक और गांव कालीमठ है। इस गांव के 20 लोग मारे गए हैं। यह गांव गुप्तकाशी शहर से महज 13 किलोमीटर ही दूर है। गांव के प्रधान को राहत सामग्री मिली है। वो लिस्ट बना रहे हैं। यहां से दस किलोमीटर दूर के भी गांव वालें इन्हीं से ये राहत सामग्री लेने आ रहे हैं। लेकिन खाने पीने के सामान के नाम पर इन्हें अभी भी सिर्फ बिस्किट मिल रहा है। दाल-चावल या आटा नहीं।
कोटमा गांव के प्रधान लक्ष्मण सिंह का कहना है कि इन सबका का क्या फायदा, अब यहां से 10 किलोमीटर दूर गांव में बिस्किट ले जाएगे। दाल, चावल। 20 लोग मरे है और औरतों के लिए सामान ले जाना है। कोटमा गांव के निवासी संतोष का कहना है कि सरकार का कहीं सिस्टन नहीं नजर आ रहा है।
दर दर की ठोकरें खाने के बाद भी खाने के लिए सिर्फ बिस्किट। तबाही अपने साथ सैकड़ों मुश्किलें लेकर आई है। हर गांव की अपनी अलग अलग परेशानियां हैं। और सरकार से बड़ी उम्मीदें। त्रासदी के तकरीबन ढाई हफ्तें बाद भी उम्मीदें पूरी नहीं हो रहीं।

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