मिड डे मील
बच्चों को स्कूल में मुफ्त खाना देने वाली दुनिया की सबसे बड़़ी योजना है।
इसका सीधा फायदा भारत के 13 लाख सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे 12 करोड़
बच्चों को मिल रहा है। इसके तहत दिन का खाना स्कूल में ही पका कर बच्चों को
परोसा जाता है, लेकिन अक्सर ये योजना खराब क्वालिटी वाले खाने के लिए
विवादों में घिरती रही है। अक्सर ही खाना पकाने में लापरवाही के चलते नन्हे
मुन्ने मारे जाते हैं।
मीड
डे मिल यानि दोपहर का भोजन, जिसकी वजह से बेहद गरीब लोगों के बच्चे भी
पढ़ने के लिए स्कूल पहुंचते हैं। स्कूल में एक बार का खाना मुफ्त देकर
बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से ही 15 अगस्त
1995 को मिड डे मील की बेहद महत्वाकांक्षी योजना की नींव पड़ी। मिड डे मील
बच्चों को खाना खिलाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी योजना है। इसका सीधा फायदा
देश के 12 करोड़ बच्चों को मिल रहा है। ये 12 करोड़ बच्चे करीब 13 लाख
सरकारी स्कूलों में पढ़ने आते हैं। और सरकार उन्हें दिन का पौष्टिक भोजन
मुहैया करवाती है। पैसा केंद्र देता है और इस योजना को लागू करती हैं राज्य
सरकारें। लेकिन अक्सर ये मिड-डे मील भ्रष्टाचार, लापरवाही और मौत का सबब
बन जाता है।
खाना
बनाने में भयानक लापरवाही बरतने के अनगिनत मामले सामने आ चुके हैं। कभी
बच्चों के खाने में छिपकली, कभी सांप, कभी कोई दूसरा कीड़ा-मकौड़ा, कभी
खराब क्वालिटी का खाना, कभी सड़ा भोजन, नन्हे मुन्ने बच्चों को खिला दिय़ा
जाता है।
बिहार
के छपरा में हुई ये घटना नई नहीं है। पिछले कई सालों से देश के तमाम
राज्यों में कई बच्चे जहरीले मिड-डे मील की बलि चढ़ चुके हैं। भारत में मिड
डे मील के नाम की शुरुआत 1925 में हुई। मद्रास म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ने
गरीब बच्चों के लिए मिड डे मील नाम की योजना शुरू की थी। अस्सी के दशक में
गुजरात, केरल, तमिलनाडु और पॉन्डिचेरी में मिड डे मील शुरू हुआ। इन राज्यों
ने अपने खर्चे पर ये सुविधा देनी शुरू की। नब्बे के दशक में ये सुविधा 12
राज्यों ने शुरू कर दी।
1995
में ये योजना देश के सभी जिलों में लागू कर दी गई। उस वक्त बच्चों को हर
दिन 100 ग्राम अन्न मुफ्त दिया जाता था। 2004 में बदलाव किया गया और
प्राइमरी क्लास यानि क्लास 1 से 5 तक के बच्चों बच्चों को पका हुआ खाना
खिलाना शुरू हुआ। अक्टूबर 2007 में मिड डे मील योजना का दायरा और बढ़ाया
गया। इसकी जद में प्राइमरी ही नहीं बल्कि अपर प्राइमरी सरकारी स्कूलों को
भी शामिल कर लिया गया। यानि अब हिंदुस्तान में मिड डे मील का फायदा कक्षा 1
से 8 तक के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिलता है।
2008
में एक और बदलाव हुआ। मिड डे मील योजना में सरकारी, स्थानीय निकायों और
सरकारी सहायता प्राप्त प्राइमरी और अपर प्राइमरी स्कूलों के अलावा मदरसा और
मकतब को भी कुछ शर्तों के साथ शामिल किया गया। लक्ष्य था हर बच्चे को खाने
की शक्ल में रोजाना 700 कैलोरी और 20 ग्राम प्रोटीन रोज मिले। उसकी सेहत
ठीक रहे और वो पढ़ने के लिए सरकारी स्कूलों की ओर आएं। बाकायदा खाना पकाने
का काम एक हजार रुपए प्रति माह की दर पर स्थानीय रसोई को दिया गया। जिस
इलाके में स्कूल है उसी इलाके से ही रसोइया हो। बीच में इस योजना में
ठेकेदारों का भी दखल हुआ, लेकिन कुछ ही वक्त बाद उसका विरोध शुरू हो गया।
क्योंकि ये कहा गया कि ठेकेदारों का दखल भ्रष्टाचार को जन्म देगा और इस
योजना के उद्देश्य को ही झटका लगेगा। इस वक्त करीब 26 लाख रसोइये मिड डे
मील पका रहे हैं। लेकिन दिक्कत इस विशाल योजना की निगरानी में है। इस योजना
के लिए आने वाले पैसे के सुचारू उपयोग में है और एफसीआई से योजना के लिए
अनाज खरीदने में है। इस योजना के लिए केंद्र ने अपना खजाना खोला हुआ है।
जहां
2007 में बजट में इस योजना के लिए 7324 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया था
वहीं 2013-14 में ये बढ़कर 13215 करोड़ रुपए कर दी गई है। इतना पैसा
खर्चने के बाद भी जहरीले मिड डे मील से मौत के हादसे मिड डे मील की मौजूदा
व्यवस्था पर सवाल खड़े होते हैं। हर बार जांच का ऐलान होता है और जांच
रिपोर्ट कही ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है, जवाबदेही न तय की जाती है न
उसे पालन न करने पर सख्त सजा ही मिलती है।
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