पिछले दो
साल में जिस दर से गरीबी कम हुई है उस हिसाब से आने वाले 10 साल में देश
से गरीबी मिट जाएगी। अचरज की बात नहीं है। योजना आयोग के आंकड़े यही बताते
हैं। 2004-05 से 2009-10 के बीच गरीबी 37 फीसदी से घटकर 29 फीसदी रह गई। इस
दौरान करीब साढ़े 4 करो़ड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गए। ये वो साल थे जब
देश की विकास दर 8 से 9 फीसदी के बीच उड़ान भर रही थी। लेकिन उससे भी
ज्यादा आश्चर्यजनक आंकड़े 2009-10 के बाद के हैं। योजना आयोग के इस साल के
आंकड़ों पर जरा ध्यान दीजिए। 2009-10 से 2011-12 के बीच सिर्फ दो साल में
गरीबी 29 फीसदी से घटकर 22 फीसदी पर आ गई। इस दौरान रिकॉर्डतोड़ साढ़े 9
करोड़ लोगों ने गरीबी रेखा को मात दी। किसी भी देश के लिए इससे अच्छे
आंकड़े क्या हो सकते हैं! ये बात अलग है कि दो साल के रिकॉर्डतोड़ आंकड़ों
को अर्थशास्त्री भी समझा नहीं पा रहे। ये वो दो साल हैं जब अंतरराष्ट्रीय
और राष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी। विकास दर लगातार नीचे
खिसकती जा रही है। यानी विकास दर जब कम है तब गरीबी सबसे ज्यादा कम हुई है।
तो क्या विकास दर का गरीबी उन्मूलन से कोई लेना-देना नहीं है।
ये
सारे सवाल शायद नहीं उठते अगर कांग्रेसी प्रवक्ताओं ने संयम बरता होता।
उनके बड़बोलेपन की वजह से सरकार का दांव उल्टा पड़ गया। अर्थशास्त्रियों के
भाषायी मकड़जाल से निकल कर ये सवाल सामान्य ज्ञान का हिस्सा बनते जा रहे
हैं। इसमें कोई शक नहीं कि योजना आयोग के आंकड़े सचमुच चौंकाने वाले हैं।
लेकिन सरकार और पार्टी के प्रवक्ता अगर जरूरत से ज्यादा उत्साहित नहीं होते
तो शायद ये संदेश दिया जा सकता था कि गरीबी उन्मूलन में यूपीए की नीतियों
का असर दिख रहा है। मगर क्या करें आंकड़ों से ज्यादा शोर ने काम बिगाड़
दिया। 5 रुपये, 12 रुपये और 1 रुपये की थाली ने सरकार की रणनीति पर पानी
फेर दिया। लोग सवाल उठाने लगे। 32 और 26 रुपये का जिन्न फिर जिंदा हो गया।
सरकार
का दांव इसलिए कह रहा हूं क्योंकि दो साल के भीतर एनएसएसओ सर्वे सामान्य
बात नहीं है। आमतौर पर ये हर पांच साल पर होता है। यानी 2004-05 और 2009-10
के बाद ये सर्वे 2014-15 में होना चाहिए था। लेकिन तब तक आम चुनाव खत्म हो
गए होते और फिर इन आंकड़ों का कोई महत्व नहीं रह जाता। इसलिए सरकार ने इसे
आनन-फानन में करवा लिया। आंकड़े भी आधे अधूरे या यूं कहें सेलेक्टिव
इकट्ठे किए गए। 2009-10 के सर्वे के बाद जारी किया गया योजना आयोग का प्रेस
नोट इस बात की भी जानकारी देता है कि अलग-अलग समुदायों में गरीबी के
आंकड़े क्या रहे। उदाहरण के तौर पर 2009-10 में 50 फीसदी कृषि मजदूर गरीबी
रेखा से नीचे थे। 42 फीसदी अनुसूचित जाति और 47 फीसदी अनुसूचित जनजाति भी
गरीबी रेखा से नीचे थे। इसी तरह विधवाएं बड़ी संख्या में गरीब थीं। यूपीए
की योजनाओं का इस समुदायों पर क्या असर हुआ? इनमें से कितने लोग गरीबी रेखा
तोड़ कर बाहर आ पाए? असली परीक्षा तो यही थी। लेकिन ये तब पता चलता जब नए
सर्वे में ये आंकड़े उपलब्ध कराए जाते। इस साल के प्रेस नोट से ये
जानकारियां गायब हैं।
एक
तर्क ये है कि ताजा सर्वे दरअसल अंतरिम सर्वे है और इसे चुनिंदा मापदंडों
पर ही कराया जा सका। बाकी आंकड़े तब उपलब्ध होंगे जब पूरा सर्वे कराया
जाएगा। फिर भी कांग्रेसी नेता बात मनवाने से नहीं चूकते कि कम से कम इससे
ये तो साबित होता है कि यूपीए के दौरान गरीबी कम हुई है। बिल्कुल हुई है
लेकिन अगर इस तर्क को मान भी लिया जाए तो ये शक और पुख्ता होता है कि पूरी
कसरत चुनाव के नजरिए से की गई। ऐसे आंकड़े सामने रखे गए जो कांग्रेस और
यूपीए के मनमाफिक हैं। वो आंकड़े जानबूझकर छोड़ दिए गए जिनका जवाब देना
मुश्किल हो जाता। वैसे भी सामान्य बहस में इतना ही तो दिखाना था कि एनडीए
के शासनकाल में गरीबी उन्मूलन 0.75 फीसदी के दर से हुआ था और यूपीए के
शासनकाल में 2 फीसदी की दर से। लेकिन वो कौन लोग हैं जो गरीबी रेखा तोड़कर
बाहर आए।
32
रुपये के आंकड़े पर छिछालेदर होने के बाद सरकार ने नई गरीबी रेखा खींचने
के लिए रंगराजन कमेटी का गठन कर दिया। नुकसान कम करने के लिए ये भी कहा गया
कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का तेंदुलकर की गरीबी रेखा से कोई
लेना-देना नहीं होगा। राज बब्बर, राशिद मसूद और फारुख अब्दुल्ला के थाली
विवाद के बाद डैमेज कंट्रोल में लगा कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व यही तर्क
आगे बढ़ा रहा है। बात भी कुछ हद तक सही है। खाद्य सुरक्षा योजना देश के
67.5 फीसदी लोगों को पौष्टिक भोजन देने की बात करती है। ऐसे ही गरीबों की
पहचान के लिए जो सामाजिक-आर्थिक-जातीय जनगणना चल रही है उसकी परिधि से भी
सिर्फ 35 फीसदी लोगों को बाहर रखा जाएगा। लेकिन ये तब होगा जब खाद्य
सुरक्षा योजना लागू हो जाए और जनगणना का काम खत्म हो जाए। या कम से कम
रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट आ जाए। इन सभी कार्यों को पूरा होने में अभी वक्त
लगेगा। वैसे भी अगर खाद्य सुरक्षा बिल की बात करें तो गरीबों की पहचान की
जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ी गई है। नई जनगणना के आने तक ज्यादातर राज्य
पुराने बीपीएल आंकड़ों पर ही भरोसा करेंगे।
सवाल
ये भी है कि खाद्य योजनाओं को छोड़ दें तो राइट-टू-एजुकेशन जैसी योजनाएं
कैसे लागू होंगी। खासकर निजी और पब्लिक स्कूलों में। क्या इसमें भी गरीबी
रेखा का महत्व नहीं रह जाएगा। जाहिर है ऐसा नहीं है। गरीबी रेखा अब भी
व्यावहारिक कारणों से अहम है। जरूरत है इस रेखा को नए तरीके से पारिभाषित
करने की। दरअसल कई अर्थशास्त्री भी मानते हैं कि जिस गरीबी रेखा पर हम चल
रहे हैं वो दरअसल भुखमरी रेखा है। इस रेखा के नीचे आत्म-सम्मान के साथ
स्वस्थ जिंदगी जीना नामुमकिन है। तो अगर सरकार खुद मान रही है कि गरीबी
रेखा सिर्फ अकादमिक कसरत है तो उसका नाम बदल कर उसे ज्यादा संवेदनशील और
व्यावहारिक क्यों न बना दिया जाए। आंखें मूंदने से गरीबी भले ही दिखना बंद
हो जाए लेकिन खत्म नहीं होगी।