एक अंधेरे से मूड को दर्शाती रीमा कागती की
फिल्म तलाश की शुरुआत होती है मुंबई की अंधेरी गलियों से। गंदे बार की
हल्की लाइट और चकले के कमरों से कैमरा निकलता हुआ पहुंचता है जहां वेश्याएं
अपने-अपने काम पर निकलने से पहले लाइन में खड़ी हैं।
मोटे
दिखने वाले दलाल अपनी लड़कियों के लिए ग्राहक की तलाश में है। एक गरीब
बूढ़ी औरत सड़क के किसी कोने में खड़ी ये सब देख रही है। एक लड़का टैक्सी
पकड़ने की कोशिश कर रहा है। ये इस शहर का ऐसा चेहरा है जिसे हम अकसर देखते
हैं,पर उस पर कभी ध्यान नहीं देते। फिर भी जो बात कागती तलाश के जरिए कहना
चाहती हैं वो ये कि ये लोग हमारी सोसायटी के जीने का तरीका है और ये लोग भी
अहमियत रखते हैं। ये भी इंसानियत और प्यार के लायक हैं।
ये सभी पहलू बहुत ही खूबी से एक मर्डर मिस्ट्री के साथ तालमेल कर दिखाए गए
हैं। इनकी शुरूआत होती है उस रात से जब एक फिल्म स्टार एक्सीडेंट में मारा
जाता है और अपनी कार के समेत समंदर में गिर जाता है। इंस्पेक्टर सूरज सिंह
शेखावत यानि आमिर खान जैसे जैसे इस केस की जांच करता है,जो जैसा दिख रहा है
उससे कही ज्यादा पेचीदा निकलता है, वो शहर के इस हिस्से में धंसता चला
जाता है।
किसी करीबी की मौत के अपराधबोध के तले दबा
शेखावत खुद को इस जांच में पूरी तरह से डुबो लेता है। वही उसकी पत्नी रोशनी
यानि रानी मुखर्जी निराशा और अकेलेपन से जूझती रहती है। जब ये पुलिस अफसर
क्लू ढूढ़ने के लिए रात के अंधेरे मे शहर के छोटे-मोटे कोने में निकलता है,
तभी शेखावत की दोस्ती होती है एक कॉलगर्ल रोजी यानि करीना कपूर से जो इस
केस की कड़ियां जोडने मे पुलिस की मदद करती है।
कागती
अपनी राइटर जोया अख्तर के साथ आपको बांधे रखने वाली कहानी कहती है जिसकी
कई परतें हैं। ऊपरी तौर पर ये एक मजेदार सस्पेंस फिल्म लगती है, पर तलाश
बहुत कुछ दुखों और उनसे उबरने की कहानी है। ये रिश्तों और प्यार की कहानी
है, साथ ही ये असाधारण विश्वासों पर सवाल खडे़ करती है। कई सारे थीम को एक
साथ लाते हुए फिल्म के राइटर अपने अहम मुद्दे से ना बहकते हुए इसे सिंपल और
पहुंच के अंदर रखते हैं।
हालांकि
इसकी कुछ कमियां भी है, फिल्म के अंत में आने वाला ट्विस्ट बिना किसी
दोराय के बहुत ही बचकाना है पर फिर भी कागती अपने इस सफर को इंगेजिंग बनाए
रखती है। फिल्म के ट्विस्ट से ज्यादा निराशाजनक ये है कि किस तरह फिल्म के
राइटर उसके ट्विस्ट को एक्सप्लेन करने के लिए रिकैप करते हैं, मानो वो
दर्शकों को समझा ना पाया हो।
फिर
भी तलाश की सबसे अच्छी बात है उसके दिलचस्प किरदार और उन्हें निभाने वाले
बेहतरीन कलाकार। लंगडे़ तैमूर के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दीकी लाजवाब
हैं जो गिरगिट की तरह अपना रंग बदलते हैं। शेखावत के जूनियर ऑफिसर के
किरदार में राजकुमार यादव महज एक सीन में ही हैं जिसमें वो सिर्फ एक
तमाशाबीन हैं और सिर्फ एक लाइन का डायलॉग बोलते हैं। लेकिन वो ये साबित कर
देते हैं कि अच्छे एक्टर को अपना हुनर दिखाने के लिए एक छोटा सा किरदार भी
काफी है।
फिल्म
की लीड में करीना कपूर कुछ बेहद बचकाने डॉयलॉग्स के बावजूद अपने किरदार
में जान डालती हैं। पुलिस वाले की हताश पत्नी के किरदार में रानी मुखर्जी
इमोशंस के साथ अपने किरदार को बहुत ही खूबी के साथ पर्दे पर उतारती हैं। पर
फिल्म के सेंट्रल रोल में आमिर खान ही हैं जो अपनी छाप छोड़ते हैं। शेखावत
अपने इमोशंस को अपने अंदर ही दबा जाता है और इस चीज को आमिर खान अपनी तनी
हुई बाजुओं, मूंछों और अपने बेहतरीन अभिनय के साथ बखूबी पर्दे पर उतारते
हैं।
डायरेक्टर
रीमा कागती ने इसी फिल्म में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है जो मूड और माहौल
में काफी अच्छी लगती है। पर तलाश जितनी अर्जेंट और टेंशन से भरी लगनी चाहिए
उतनी नहीं लगती और इसका प्लॉट भी उतना कॉम्लेक्स नहीं लगता जितना होना
चाहिए था। इसका नतीजा है कि ये फिल्म देखने लायक जरूर है पर ग्रेट फिल्म
नहीं है। मैं डायरेक्टर रीमा कागती की तलाश को पांच में से साढ़े तीन स्टार
देता हूं। इसे मिस मत करिएगा, ये साल की बेहतरीन फिल्मों में से एक है।
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