Tuesday, November 20, 2012

भारत में डाक प्रणाली का प्रवर्तक था तुगलक!

नई दिल्ली। या बसे गुजर, या रहे उजड़, (यहां गुजर बसें वरना यह जगह उजाड़ रहे) संत निजामुद्दीन का यह श्राप प्रभावी रहा है। आधुनिक दिल्ली के बाहरी हिस्से तुगलकाबाद के भग्न परकोटों से शांत और इस शहर के निर्माता योद्धा सम्राट का तंबू जैसा मकबरा नजर आता है। केवल छह सौ साल पहले बनी राजधानी के उस समय के स्वरूप की कल्पना करना भी कठिन लगता है। लेकिन समय के बीतने के साथ यहां बने दुर्ग लोगों को उसकी अतीत की शान की याद दिलाते हैं। तुगलकाबाद बसाने वाला तुगलक भारत की डाक प्रणाली का प्रवर्तक भी था।
आज यहां खंडहर बने हुए हैं जहां गीदड़, शाही और अलवर के पास की पहाड़ियों से आकर तेंदुए इन भूमितल की पगडंडियों में शरण लेते हैं। केवल वहां अस्थायी झोपड़ियां ही मानव जीवन के एकमात्र चिह्न् थे। ये गरड़िए दुबले-पतले, तेज आंखों वाले और धूप में झुलसे चेहरे वाले हैं।
शहर को दिया गया श्राप फलीभूत हो गया है। उस समय गयासुद्दीन तुगलक एक ऐसा शासक था जो करीब-करीब एक निर्दोष चरित्र वाले शासक के रूप में उभरा। उसके जीवन का अधिकांश हिस्सा गद्दी पर चढ़ने के समय तक खिलजियों की लड़ाईयां लड़ने में बीत गया था। जब तक कि राजवंश कुतबुद्दीन मुबारक की मूर्खताओं के कारण नष्ट नहीं हो गया। तुगलक पर स्वयं राजगद्दी पर बैठने के लिए दबाव डाला गया था क्योंकि यह माना जाता था कि यह अनुभवी वृद्ध योद्धा ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जो उस समय जारी अव्यवस्था को समाप्त करके वहां शांति स्थापित कर सकता था।
उसकी दिल्ली में गयासुद्दीन तुगलक की शाह के रूप में ताजपोशी की गई थी। उसका पिता तुगलक एक तुर्की गुलाम था और मां भारतीय मूल की जाटनी थी।
राजगद्दी पर बैठने के समय तुगलक बुजुर्ग हो गया था लेकिन मन और शरीर से वह अब भी बलशाली था। उसके कारनामों से पता लगता है कि उस पर ठीक ही विश्वास किया गया था। उसने पसंदीदा व्यक्तियों को भारी-भरकम उपहार देकर कुछ लोगों के साथ सुलह करने की कोशिश नहीं की। उससे केवल वही लोग अप्रसन्न थे जो उसकी बहुत अधिक धन-दौलत एकत्र करने की मुखालफत की नीति से निराश थे।
उसने खेती-बाड़ी को बढ़ावा दिया और जो जमीन बहुत लंबे समय के कुशासन से बंजर पड़ी थी उस पर फिर से खेती की जाने लगी। उसने राजस्व की वसूली की निगरानी की और फैसला किया कि कर संग्रह करने वालों को यही पुरस्कार मिलेगा कि उन्हें अपनी जोतों पर कर नहीं देना पड़ेगा।
तुगलक ने बहुत तेजी से अपनी ताकत का इस्तेमाल आंशिक रूप से संचार के उत्कृष्ट साधनों के लिए किया। जिसके माध्यम से संदेशों को हरकारे (मेल रनर) या घुड़सवार द्वारा हाथोंहाथ आगे पहुंचाया जाता था। वस्तुत: वह भारत की डाक प्रणाली का प्रवर्तक था। हरकारों का पड़ाव एक तिहाई मील पर था। ईस्ट इंडिया कंपनी के रनर्स के लिए यह आठ किलोमीटर हुआ करता था। इन हरकारों के रुकने के लिए रास्ते के किनारे झोपड़ियां बनाई गई थीं और ऐसा लगता है कि यह प्रणाली कामयाब थी।
उसके शासन में उत्तरी अफ्रीका से आने वाले यात्री इब्ने बतूता के सिंधु के मुहाने पर आने की खबर दिल्ली में चार दिन में पहुंच गई थी। जबकि यह दूरी लगभग आठ सौ या नौ सौ किलोमीटर की थी।
तुगलक शाह ने अपने पुरखों की राजधानी सीकरी को छोड़ दिया था। उस समय राजधानी बदलने का रिवाज था और उसने सीकरी के पूर्व में लगभग तीन मील दूर एक बंजर, चट्टानी चपेट भाग पर एक नया स्थान चुना और चार साल के थोड़ी से समय में एक विशाल कस्बे और दुर्ग का निर्माण कराया।
अब तुगलकाबाद के आसपास उदासी भरे वैभव का एहसास होता है। विनाश के बावजूद दुर्ग के दक्षिणी हिस्से से अब भी निकासी मार्ग वाली भव्य दीवारें और मीनारें नजर आती हैं। अफ्रीकी यात्री इब्न बतूता ने लिखा है कि यहां तुगलक के खजाने और भवन थे। उसने मुल्लमेवाली ईंटों से एक शानदार महल बनवाया था जो कि सूरज चमकने पर इतना चकाचौंध कर देता था कि उसकी ओर देखना कठिन था।
आज हमें यह सोचकर हैरानी होती है कि इतने बड़े शहरों का निर्माण अच्छे और पर्याप्त जल की आपूर्ति सुनिश्चित किए बिना कैसे किया गया था।
तुगलकाबाद के निर्माण कार्य में बहुत बाधाएं आई थीं। सुना जाता है कि तुगलक शाह और संत निजामुद्दीन के बीच दुश्मनी थी। संत निजामुद्दीन ने लगभग पांच मील की दूरी पर एक हौज का निर्माण कर रहा था। संत चाहता था कि तुगलकाबाद की दीवारों का निर्माण करने वाले कारीगर लैंपों की रोशनी में रात के समय उसके लिए काम करते रहें।
इस बात से नाराज होकर तुगलक ने निजामुद्दीन को तेल बेचने पर रोक लगा दी। लेकिन यह कहा जाता है कि संत ने हौज के पानी से रोशनी कर दी और काम जारी रखा। तब तुगलक शाह ने मकबरे के जल को कटुता से श्राप दिया। जिसके बदले में संत ने तुगलकाबाद को उजड़ने का श्राप दे दिया।
तुगलक यद्यपि धर्मभीरु था, फिर भी वह निजामुद्दीन की ताकत के सामने समर्पण नहीं करना चाहता था। उसी बीच संत ने सुल्तान के महत्वाकांक्षी बेटे जूना खान के साथ मिलकर सुल्तान की मौत का षड्यंत्र रचा।
जब तुगलक को अपने बेटे के विश्वासघात की खबर मिली तो वह दूर बंगाल में था। उसने निजामुद्दीन को पत्र लिखकर कहा कि जब वह दिल्ली लौटेगा तो वह राजधानी उन दोनों के रहने के लिए छोटी पड़ जाएगी। उसी समय निजामुद्दीन ने यह ऐतिहासिक टिप्पणी की थी कि हुजूर! दिल्ली दूर है।
तुगलकाबाद की यात्रा से लौट रहे सुल्तान के स्वागत में शहर को सजाया गया था। स्वागत के लिए जूना खान ने लकड़ी का एक खोखा बनवाया जो इतना कमजोर था कि यदि कोई हाथी उसे हिला दे तो वह गिर पड़ता। जुना खान ने स्वागत के लिए हाथियों की परेड का इंतजाम किया था। उसी दौरान वह खोखा ढह गया और उसके नीचे सुल्तान दब गया।
स्वागत के समय उपस्थित शेख रुकनुद्दीन ने बाद में इस घटना का वर्णन किया कि उसे भी खोखे के पलटने से थोड़ी देर पहले उससे दूर हटने की चेतावनी दी गई थी। जूना खान ने फावड़ों और अन्य औजारों के पहुंचने में देरी करा दी। बहुत देर बाद मलबे से तुगलक के शव को निकाला गया।
शायद तुगलक शाह का मकबरा आधुनिक दिल्ली के बाहर सबसे खूबसूरत इमारत है। कभी इसके चारों ओर एक छोटी-सी झील हुआ करती थी। मकबरे के भीतर तीन कब्रें हैं- तुगलक शाह, उसकी बेगम और स्वयं जूना खान की। इसी घटना ने जूना खान को खूनी सुल्तान की पदवी दिलाई थी। उसके उत्तराधिकारी फिरोज शाह ने उन सब लोगों से उपहार खरीदे जिनके साथ जूना खान ने अन्याय किया था और उन्हें अपनी कब्र के सिरहाने रख दिया ताकि कयामत के दिन वे वस्तुएं उन्हें सौंप दिए जाएं

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