अन्ना का नया आंदोलन फ्लॉप हो गया। अन्ना का
जादू खत्म हो गया। ये कहने वालों की कमी नहीं है। अन्ना की टीम भी
जंतर-मंतर पर ज्यादा भीड़ नहीं जुटने से परेशान नजर आई। किरण बेदी और
प्रशांत भूषण ने मीडिया को कोसा। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि अन्ना
के आंदोलन का भविष्य क्या है? और पिछले महीने अप्रैल से भ्रष्टाचार के
खिलाफ जो ज्वार पैदा हुआ था उसकी परिणति क्या होगी? क्या वो पानी का एक
बुलबुला था जो वक्त के साथ फट गया? क्या वो महज लहरें थीं जो समय के साथ
किनारे से मिल गईं?
अन्ना आंदोलन पर अपनी किताब
'अन्ना - थर्टीन डेज दैट एवेकेंड इंडिय़ा' में मैंने लिखा था कि दिसंबर में
मुंबई अनशन के बाद अन्ना और उनकी टीम एक चौराहे पर पहुंच गई है और आगे का
रास्ता खोजने के लिए उसे नए सिरे से तैयारी करनी होगी। सिर्फ बार-बार अनशन
और भूख हड़ताल से काम नहीं चलेगा। कुछ नया करना होगा। नई ऊर्जा का संचार
करना होगा। क्या वो कर पाएंगे? इस सवाल के साथ किताब खत्म हो जाती है। आज
भी ये सवाल जिंदा है। और जंतर-मंतर पर पहले तीन दिन नहीं जुटने वाली भीड़
ने इस सवाल को और पुख्ता कर दिया है। पिछले एक साल में अन्ना को जनमानस ने
ऐतिहासिक समर्थन दिया। जो अन्ना ने कहा उसने किया, जहां बुलाया वो चला आया।
ऐसे में सवाल ये है कि अब वो क्यों नहीं आ रहा है? या उसके समर्थन में वो
ऊर्जा, वो सहजता, वो आकर्षण क्यों नहीं दिख रहा है? क्या जनमानस बदल गया
है? क्या जनमानस का अन्ना और उनकी टीम पर से भरोसा उठ गया है?
पिछले
साल अन्ना ने जब अप्रैल महीने में जनआह्वान किया था तब जनमानस की ताकत के
सामने सरकार झुकी और उसने लोकपाल बनाने वाली कमेटी में अन्ना और उसकी टीम
को जगह दी। यानी अन्ना ने जो मांगा वो मिला। इससे जनमानस को जीत का एहसास
हुआ। उसे लगा कि सरकार को झुकाया जा सकता है। व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद
जगी और पूरी होती नजर आई। कोई भी जनांदोलन उम्मीद की ऑक्सीजन पर चलता है।
अप्रैल ने लोगों में आशा का भयानक संचार किया। ऐसे में जब अन्ना ने रामलीला
मैदान में अनशन का ऐलान किया तो जीत की एक और उम्मीद से जनता फिर जुटी। और
आजादी के बाद किसी गैर राजनीतिक प्लैटफॉर्म पर पहली बार इतनी बड़ी भीड़
लोगों ने देखी। और सरकार और संसद को एक बार फिर झुकना पड़ा। संसद और सरकार
ने वायदा किया कि लोकपाल बिल बनेगा। और जल्दी ही पास भी हो जाएगा। लेकिन
इसके बाद सरकार ने रंग बदला। वो अपने वायदे पर कायम नहीं रह पाई। दिसंबर
महीने में लोकसभा में बिल पास तो किया लेकिन राज्यसभा में बिल लटक गया। अब
सात महीने गुजर गए हैं, लोकपाल कानून बनेगा ये दावे से नहीं कहा जा सकता।
उम्मीद धूमिल पड़ गई है।
2011 की शुरुआत उम्मीद
को जीत में बदलते हुए देखने की थी। साल के अंत में जीत की उम्मीद खत्म होने
लगी। लोग राजनीतिक पार्टियों से पहले ही उम्मीद खो चुके है। जनांदोलन ने
उम्मीद बंधाई थी कि वो भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने में कामयाब होगी। जब सरकार
और राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान ने अपनी चालबाजियों से इस भरोसे को भी तोड़
दिया है। लोग कहने लगे हैं कि बार-बार अनशन से क्या होगा? इस बार जब मैं
जंतर-मंतर गया तो कई लोग मिले। इन लोगों ने साफ कहा कि अन्ना ने बड़ी गलती
कि रामलीला मैदान से उन्हें उठना नहीं चाहिए था। वो सरकार के बहकावे में आ
गए। लोकपाल बिल तब बन सकता था। अब नहीं। नेता लोग बड़ी मोटी चमड़ी के होते
हैं। इनको कोई फर्क नहीं पड़ता। और अब ये कानून नहीं बनाएंगे अन्ना कुछ भी
कर लें, कितना ही अनशन क्यों न कर लें? यानी लोग एक बार फिर अप्रैल 2011 के
पहले की स्थिति मे पहुंचते नजर आए। 'उम्मीद-की-टूटन' ही अन्ना के नए अनशन
को वो आग नहीं दे पा रही है जो उसने रामलीला मैदान में दिखाई थी।
फिर
अन्ना और उनकी टीम ने पिछले डेढ़ साल में अपनी शैली में कोई खास बदलाव भी
नहीं किया। न तो उनकी 'स्ट्रेटजी' मे 'नयापन' दिख रहा है और न ही उनके
'मकसद' में। मंच से दिए गए भाषण भी अपनी 'नवीनता' खो चुके हैं। अन्ना हो या
फिर अरविंद या फिर प्रशांत भूषण अपने आप को बार-बार दोहराते से दिखते हैं।
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज नए दौर में सांस ले रहा है।
गांधी जी को अपना संदेश कश्मीर से कन्याकुमारी तक पहुंचाने में सालों लगे
थे और जेपी को महीनों तो अन्ना को चंद घंटे या चंद दिन। यानी ये
'संचार-युग' है। संदेश जितनी तेजी से फैलता है उतनी ही तेजी से मरता भी है।
संदेश की ये गति संजीवनी भी है और विष भी। संचार युग ने एक नई
उपभोक्तावादी संस्कृति को भी जन्म दिया है। संचार की तेजी की वजह से नया से
नया 'उत्पाद' कुछ दिनों में पुराना पड़ने लगता है। इसलिए उत्पाद को टिकाऊ
बनाने के लिए उसे कुछ समय के बाद नई तरह से पेश करना होता है। उपभोक्ता को
लगातार बताते रहने की जरूरत होती है कि उनकी तेजी से बदलती रुचि के हिसाब
से उत्पाद भी बदल गया है। मार्केटिंग की इस 'ट्रिकबाजी' में अन्ना और टीम
फिलहाल पिछड़ती दिखी। अन्ना आज भी वही भाषण दे रहे है कि 'वो मंदिर मे रहते
हैं, उनके पास सोने को एक खाट है और खाने के लिये के एक प्लेट और उनका कोई
बैंक बैलेंस नहीं है। देश के लिये जीना और देश के लिए मरना यही उनके जीवन
का मकसद है'। अप्रैल में ये बात नई थी लोगों को अपील करती थी। एक डेढ़ साल
बाद ये भाषण और नारे अपनी अपील खो चुके हैं। 'संचार-युग' और
'उपभोक्तावादी-संसार' में अन्ना नाम के 'उत्पाद' को भी अपने को टिकाऊ बनाये
रखने के लिये नित 'नवीनता-का-आविष्कार' करते रहना होगा। सिर्फ मंदिर की
बात कहने से काम नहीं चलेगा, मंदिर के आगे कहना पड़ेगा। कुछ नया बोलना
होगा। कुछ नये सपने देकर जीत की उम्मीद बनाये रखनी होगी।
हालांकि
अभी भी मेरा साफ मानना है कि अन्ना के आंदोलन को जो लोग चुका हुआ मान चुके
हैं वो गलती कर रहे हैं। सड़क पर आकर लड़ने के जज्बे में थकान आ सकती है
लेकिन समर्थन में कमी आई है ये मैं नहीं मानता। ऐसे में अन्ना के आंदोलन को
बुलबुला मानने की गलती मैं नहीं करूंगा। ये देखना दिलचस्प होगा कि यहां से
आगे का रास्ता वो क्या लेता है।
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