Monday, September 10, 2012

कार्टूनिस्ट केसः अंग्रेजों के बनाए कानून को कब तक ढोएंगे हम?

कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की देशद्रोह के आरोप में हुई गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजों के बनाए इस कानून पर बहस तेज हो गई है। इस कानून को आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 1870 में लागू किया था। ब्रिटेन में भी 2009 में इस कानून को खत्म किया जा चुका है, लेकिन भारत में ये अब तक जारी है।
बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, डॉक्टर बिनायक सेन, अरुधंति रॉय और अब असीम त्रिवेदी...वैसे तो इस सूची में दर्ज नामों में विचारधारा का फर्क है, लेकिन एक गजब समानता भी है। इन सभी को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। गांधी और तिलक को गुलाम भारत में तो बाकी को आजाद भारत में। इन सबको देशद्रोही बताने के लिए प्रशासन ने एक ही कानून का सहारा लिया। वो कानून जिसे अंग्रेजों ने 1870 में आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए लागू किया था। इंग्लैंड में भी एक ऐसा ही कानून था जिसे जुलाई 2009 में रद्द कर दिया गया, लेकिन हिंदुस्तानी अंग्रेजों की दिलचस्पी इसे बनाए रखने में है। आरोप है कि सरकारें अपने खिलाफ चलने वाले आंदोलनों को कुचलने के लिए इस कानून का दुरुपयोग करती हैं। 
दरअसल भारतीय दंड विधान यानी आईपीसी की धारा 124 (ए) के मुताबिक कोई भी व्यक्ति जो अपने शब्दों, इशारों या किसी भी तरह से सरकार के खिलाफ नफरत या अवमानना फैलाएगा, उसे देशद्रोह का गुनहगार मानते हुए कार्रवाई की जा सकती है। इसके तहत उम्रकैद तक की सजा दी जा सकती है। अंग्रेजों ने इस कानून को अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाने के लिए बनाया था। लेकिन वक्त बदलने के बावजूद हुक्मरानों का अंदाज नहीं बदला।
इन दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ आम लोग सड़कों पर आकर तरह-तरह से अपनी भावनाएं जाहिर कर रहे हैं। अगर इस कानून का सहारा लिया जाए, तो ऐसे सभी लोगों को जेल में डाला जा सकता है। कोल ब्लॉक आवंटन में तो सरकार के साथ साथ प्रधानमंत्री पर भी सीधे आरोप लग रहे हैं। ऐसे में अब इस कानून में बदलाव की जरूरत और ज्यादा हो जाती है।
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी ने इस बहस को तेज कर दिया है। ये सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है। अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए बड़ी कुर्बानी देनी पड़ी थी, और अब साफ है कि आम हिंदुस्तानी को देशद्रोही बताने वाले उनके कानूनों को भी खत्म करने के लिए कम जोर नहीं लगाना पड़ेगा।
किसी भी कानून से अपेक्षा की जाती है कि वो मानव व्यवहार को नियंत्रित करे और समय के साथ लोगों की जरूरतों और समाज में हो रहे बदलाव के साथ खुद भी बदले। बदकिस्मती से ऐसा नहीं हो पाया। आजादी के साठ साल बाद भी हम अंग्रेजों के बनाए आईपीसी को ढो रहे हैं। सवाल है कि आखिर कब तक?

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