मंडल कमीशन की सिफारिशें जब वीपी सिंह ने लागू
कीं तब मैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में था। मंडल कमीशन ने सरकारी
नौकरियों में पिछड़ों को अलग से 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की थी।
जातिवादी राजनीति का जो नंगा नाच मैंने जेएनयू जैसे सैक्युलर, समतामूलक,
वामपंथी रुझान के कैम्पस में देखा था वो झकझोर देने वाला था। मैं तब काफी
सक्रिय था। मंडल और आरक्षण के खिलाफ। मेरे तर्क साफ थे। एक, आरक्षण से देश
में जातिवाद बढ़ेगा। दो, समाज में विभाजन होगा। तीन, जातिवादी हिंसा को
बढ़ावा मिलेगा। चार, प्रशासन कमजोर होगा। पांच, समाज में हमेशा के लिए एक
'परजीवी' वर्ग पैदा होगा जो मेहनत और मेधा की जगह कोटे से नौकरी पाने और
आगे बढ़ने में यकीन रखेगा। छह, अगर आरक्षण से प्रशासन कमजोर नहीं होता है
तो फिर सेना में आरक्षण क्यों नहीं दिया जाता? इन तर्कों के समानांतर मेरा
मानना था कि आरक्षण की जगह सभी पिछड़ों और दलितों को अगड़े वर्ग के बच्चों
के बराबर आने के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए जैसे मुफ्त शिक्षा हो, शिक्षा
के लिए प्रोत्साहित करने के लिये स्कॉलरशिप दी जाए। रुचि के हिसाब से
मेधावी छात्रों को सरकारी नौकरिय़ों की प्रतियागी परीक्षाओं के लिए मुफ्त
तैयारी की सुविधा प्रदान की जाए। पिछड़ों को अगड़ों के बराबर लाकर उन्हें
प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धा के लिये छोड़ देना चाहिए। यानी समानता के
सिद्दांत के मुताबिक समान अवसर सबको मिलें और कोई वर्ग ये महसूस न करे कि
उसका हक मारा गया।
लंबे समय तक मेरी ये सोच बदली
नहीं। लेकिन जैसे-जैसे समाज को नजदीक से देखने का मौका मिला मेरी सोच बदलने
लगी। आज मैं आरक्षण का पक्षधर हूं। पहले मेरे लिये आरक्षण सिर्फ नौकरियों
में पिछड़ों और दलितों की हिस्सेदारी का मसला था। बाद में लगा, नहीं बात
सिर्फ नौकरी में हिस्सेदारी की नहीं है। हर बहुलतावादी समाज में इस तरह की
शिकायत रहती है। मसला कुछ और है। जाति के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन और
उसके आधार पर समाज में व्यक्ति की हैसियत। सम्मान और हिकारत का हक। अग़ड़ी
जाति को हमेशा सम्मान मिलेगा, समाज में हमेशा ऊंचा दर्जा होगा और पिछड़ी
जातियों और दलितों को हमेशा ही हिकारत की नजर से देखा जाएगा। दलितों की
हालत तो और भी बुरी। उन्हें समाज, समाज का हिस्सा ही नहीं समझता। यहां तक
की इंसान मानने को भी ऊंची जातियां तैयार नहीं। महाकवि तुलसी दास तक कह गए
हैं- ढोर, गंवार, शुद्र, पशु, नारी..ये सब ताड़न के अधिकारी। यानी तुलसी
दास के मुताबिक समाज का दलित वर्ग जानवर के समान है और उसको प्रताडित करना
चाहिए। मैंने सोचा जहां ये सोच हो वहां आरक्षण सिर्फ नौकरिय़ों में
हिस्सेदारी का ही मसला नहीं हो सकता। मसला इंसान को इंसान समझने का है।
जाति के आधार पर कोई प्रताड़ित न हो, हक न छीना जाए, ये असल मसला है।
मैं
समझता था कि आरक्षण से समाज में जातिवाद बढ़ेगा। मेरी सोच गलत थी। समाज
में जातिवाद हजारों साल से है वो आरक्षण से नहीं बढ़ा। आरक्षण ने दलितों और
पिछड़ों में समानता का एहसास जगाया, उन्हें सिखाया कि संख्या में वो अगड़ी
जातियो से ज्यादा हैं ऐसे में सत्ता और प्रशासन में सिर्फ अगड़ों का ही
कब्जा क्यों हो? उनकी भी सत्ता और प्रशासन में संख्या के अनुपात में
भागीदीरी हो। इस राजनीतिक चेतना ने समाज की उस प्रक्रिया को तेज किया जो
उन्हें बराबरी का दर्जा देने के लिए उद्दत थी। बिहार और उत्तर प्रदेश इसकी
मिसाल बने। जिन जातियों को ताड़न का अधिकारी माना जाता था वो सत्ता पर
काबिज होने लगीं। बिहार में पिछड़ी जातियां लालू यादव की अगुआई में और यूपी
में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम-मायावती के नेतृत्व में सत्ता के शीर्ष
पर पहुंचीं। जिन जातियों को यूपी और बिहार की उच्च जातियां यानी बाबू साहब
लोगों के सामने बोलने और बैठने का अधिकार नहीं था, वो खुलकर बोलने लगीं।
समाज का पिरामिड उलट गया। अब किसी उच्च जाति के लिए पिछड़ों और दलितों पर
अत्याचार करना आसान नहीं रह गया। पिछड़ों और दलितों की चेतना ने उन्हें न
केवल राजनीतिक ताकत दी बल्कि सामाजिक स्तर पर भी उन्हें 'मजबूरी' में ही
सही लेकिन स्वीकार्य बना दिया। मायावती ने 2007 में नया प्रयोग किया।
दलितों के साथ ब्राह्मणों का चुनावी रसायन तैयार किया। वो अपने बल पर सरकार
बनाने में कामयाब रहीं। इस प्रयोग में एक फर्क था। पहले अगड़ी जातियां
नेतृत्व करती थीं और दलित सिर झुकाए उनके पीछे चलते थे। ये कांग्रेस का
विजयी फॉर्मूला था। मायावती के शासन में दलित आगे थे और ब्राह्मण पीछे। ऐसा
सदियों में कभी नहीं हुआ था। ये भारतीय संदर्भ में मामूली क्रांति नहीं
है, अभूतपूर्व है। जातिवाद के जंगल में मायावती का मुख्यमंत्री बनना भारतीय
लोकतंत्र और इस सामाजिक उत्थान की बहुत बड़ी उपलब्धि है। जिन लोगों ने
करीब से जाति का दंश नही झेला या भोगा है वो इस बदलाव को समझ नहीं सकते।
इस
तर्क में भी दम नहीं है कि आरक्षण से प्रशासन कमजोर होगा।
लालू-मुलायम-माया के शासन में और उनके पहले उच्च जातियों के नेताओं के शासन
में कोई खास फर्क नहीं है। क्या नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह और
बिहार में भगवत झा आजाद, जगन्नाथ मिश्र का शासन बेहतर था? जो प्रशासनिक
कमजोरिय़ां और भ्रष्टाचार पहले था, वैसा ही भ्रष्टाचार और प्रशासनिक
कमजोरियां बाद में भी नजर आईं। जगन्नाथ मिश्र और लालू यादव के शासन में
मुझे कोई अंतर नहीं दिखता। अगर मायावती के शासन के भ्रष्टाचार को छोड़ दिया
जाये तो प्रशासनिक क्षमता के सवाल पर वो अपने किसी भी पूर्ववर्ती अगड़े
मुख्यमंत्री से बीस ही बैठेंगीं।
दरअसल अगड़ी
जातियों के तर्क पुरानी 'ताड़नकारी' व्यवस्था को बनाए रखने का एक षड्यंत्र
और इस आधार पर सदियों पुराने 'अवैध' सामाजिक-राजनीतिक कब्जे को बरकरार रखने
का बेहूदा बहाना। फिर इस सवाल का जवाब कौन देगा कि मंडल कमीशन लागू होने
के बाद जातिवादी हिंसा कैसे कम हो गई? यूपी और बिहार सत्तर और अस्सी के दशक
में ऐसी जातिवादी हिंसा की खबरों से भरे रहते थे। एक बात और मंडल कमीशन के
बाद देश ने आर्थिक तरक्की कैसे कर ली? क्योंकि अगड़े तर्क के मुताबिक
पिछडे दलितों को न तो सत्ता चलाना आता है और न ही इनके पास प्रशासनिक कौशल
है। और आज बिहार कैसे तरक्की कर रहा है जबकि वहां पिछले सात साल से एक
पिछड़े नीतीश कुमार का शासन है? ऐसे में आज फिर प्रमोशन में कोटे का विरोध
करने वाले विंस्टन चर्चिल की तरह हमें और आपको ये समझाना चाहते है कि
अंग्रेज ही शासन कला में पारंगत हैं हिंदुस्तानी के हाथ में सत्ता का मतलब
है देश के टुक़ड़े होना। आजादी के पहले चर्चिल गलत थे और आज ये तर्कवीर।
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