मौजूदा राजनीतिक माहौल से लोगों में काफी
निराशा है। आम आदमी थका और ठगा हुआ महसूस कर रहा है। घोटाले उसके लिए नए
नहीं हैं, लेकिन वे इस कदर और इतने बड़े स्तर पर होंगे, इसकी उम्मीद उसे
नहीं थी। लोग कहते हैं कि नेताओं और राजनीतिक दलों से कुछ भी आशा बेकार है।
पहले 64 करोड़ का घोटाला होता था। अब एक लाख छियासी हजार करोड़ का हो रहा
है। क्या देश को लेनिन की 1917 की क्रांति की जरूरत है या फिर माओ की 1949
की क्रांति की या फिर गांधीजी को बुलाया जाए? मुझे लगता नहीं कि इतना निराश
होने की आवश्यकता है। एक 'अदृश्य शांत-क्रांति' की हवा चल निकली है। देश
बदल रहा है। मेरी बातें अंतर्विरोधी लग सकती हैं, लेकिन ध्यान से देखें, तो
कुछ दिखाई भी देगा। गठबंधन दौर के बावजूद लोकतांत्रिक संस्थाएं पिछले 65
साल में न केवल मजबूत हुई हैं, बल्कि राजनीतिक जमातों को चपत भी लगा रही
हैं। चुनाव आयोग हो या फिर कैग या न्यायपालिका या फिर आम आदमी, वह राजनीति
को कह रहा है कि बदलो, नहीं तो बदल दूंगा।
टीएन
शेषन के पहले चुनाव आयोग की कोई अहमियत नहीं थी। चुनावों में जमकर धांधली
होती थी। मतपेटियां खुलेआम लूटी जाती थीं। लोगों को मतदान से रोका जाता था।
डंडे के जोर पर एक ही पार्टी या नेता के पक्ष मे वोट डलवाए जाते थे।
खून-खराबा होता था। चुनावी नतीजों पर हमेशा सवाल खड़ा रहता था। शेषन ने एक
झटके में रोक लगाने का काम किया। चुनावी हिंसा कम होने लगी। वोटों की
लूटपाट खत्म होने लगी और नेताओं के दिल में डर बैठने लगा। शेषन ने अकेले दम
पर चुनावों को निष्पक्ष व हिंसा रहित कर दिया। नेताओं को यह पसंद नहीं
आया। उनको रोकने की कोशिश नरसिंह राव सरकार ने की। शेषन को सनकी, डिक्टेटर
और पागल करार दिया गया। उन पर लगाम लगाने के लिए मनोहर सिंह गिल व जीवीजी
कृष्णमूर्ति को चुनाव आयुक्त बनाया गया। वरना पहले एकमात्र मुख्य चुनाव
आयुक्त होते थे। लेकिन आयोग को अपनी ताकत का अहसास हो गया था। अब चुनाव
साफ-सुथरे होते हैं, इसका क्रेडिट शेषन को जाता है।
शेषन
के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी अंगड़ाई लेनी शुरू की। हालांकि जगमोहन सिन्हा
जैसे हाईकोर्ट के जज पहले भी रह चुके हैं, जिन्होंने इंदिरा गांधी की
लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी थी। पीएन भगवती भी थे, जिन्होंने पब्लिक
इंटरेस्ट लिटिगेशन यानी पीआईएल को एक आंदोलन का रूप देकर आम आदमी को ताकत
दी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता 90 और बाद के दशक में अपने चरम पर
पहुंची। जो काम सरकार को करना चाहिए था, वह अदालतों को करना पड़ा। दिल्ली
की मिसाल लें। दिल्ली का पर्यावरण खराब था, इसे दुनिया का सबसे प्रदूषित
शहर कहा जाता था। इस पर दिल्ली सरकार को अंकुश लगाना चाहिए था, लेकिन वह
सोती रही। सुप्रीम कोर्ट आगे आया, सीसा मिला पेट्रोल बंद हुआ, सीएनजी की
बसें चलने लगीं। यमुना साफ हो, नदियों को गंदा करने वाले उद्योग-धंधे और
कारखाने बंद हों, इसकी कोशिश अदालत को करनी पड़ी। उसकी इसी सक्रियता के
चलते नेता व अफसर जेल जाने लगे। हाल में 2-जी सबसे बड़ा उदाहरण है। सारे
लाइसेंस रद्द हुए, कैबिनेट मंत्री, पेट्रोलियम सचिव और कई बड़ी कंपनियों के
मालिक व आला मैनेजर जेल गए।
गुजरात दंगों की ठीक
से जांच हो, अपराधियों को सजा मिले इस काम में भी सुप्रीम कोर्ट को दखल
देना पड़ा। गुजरात पुलिस ने तो सबको क्लीन चिट दे दी थी। नरोडा पाटिया
दंगों की प्रमुख गुनहगार को नरेंद्र मोदी ने मंत्री बनाकर इज्जत बख्शी थी।
जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुई, तो माया जेल में हैं। इसी तरह देश
में कैग यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जैसी कोई संस्था है, इसका पता
लोगों को हाल-फिलहाल ही लगा। पहले कैग की रिपोर्ट को तवज्जो नहीं दी जाती
थी। बोफोर्स मामले में तब के कैग टीएन चतुर्वेदी की रिपोर्ट ने जरूर राजीव
गांधी की कुरसी हिलाई और बाद में कारगिल हमले के संदर्भ में सैनिकों के
ताबूतों की खरीद में हुए घोटाले पर कैग की रिपोर्ट ने रक्षा मंत्री जॉर्ज
फर्नाडिस के होश उड़ा दिए थे।
विनोद राय के
कार्यभार संभालने के बाद यह संस्था वैसे ही बदल गई, जैसे शेषन ने चुनाव
आयोग को बदला था। पहले राजनीतिक दल माहौल गरमाते थे और कैग की रिपोर्ट का
इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाता था, सरकार पर हमले के लिए। लेकिन अब कैग
की रिपोर्टे आती हैं, मीडिया में हंगामा होता है और राजनीतिक दल मुद्दा
बनाने के लिए मजबूर होते हैं। 2-जी घोटाले में 1,76,000 करोड़ की संख्या
इतनी बड़ी थी कि कोई कैग की रिपोर्ट को नकार नहीं पाया। और अब कोयले में
1,86,000 करोड़ के आंकड़े ने सरकार का चैन छीन लिया है। कैग पहले सिर्फ
ऑडिट करता था,अब उसने देश को बताना शुरू किया है कि सरकार, मंत्री, नेता और
बड़ी कंपनियां किस तरह से नियम-कानून की धज्जियां उड़ाते हुए बेशर्मी से
अपनी जेबें भर रही हैं। कैग ने बताया कि दस रुपये का सामान दो रुपये में
बेचा जा रहा है तथा दो रुपये की चीज दस रुपये में खरीदी जा रही है और इस
बंदरबांट में ऊपर तक लोग शामिल हैं।
आम आदमी की
नींद भी टूटी है। आरटीआई आंदोलन ने छोटे-बड़े शहरों में सरकारी बाबुओं की
नाक में दम कर रखा है। निश्चित रूप से आरटीआई से मामला काफी आगे बढ़ा है।
लोगों ने लोकपाल की मांग की और अन्ना हजारे व बाबा रामदेव की अगुवाई में वे
सड़कों पर उतर आए। साल 2011 में सामाजिक आंदोलनों ने केंद्र सरकार को ऊपर
से नीचे तक हिला दिया। फिर सोशल मीडिया पर लोगों की भागीदारी और हर मुद्दे
पर बेझिझक अपनी राय रखने की आदत भी अब सरकारों के बेलगाम पैरों में
बेड़ियां डालने का काम करने लगी हैं। मुख्यधारा मीडिया खासतौर से टीवी
न्यूज चैनलों ने पहले ही सरकार की नाक में दम कर रखा है और इससे परेशान
सरकार टीवी पर नियंत्रण की वकालत कर रही है। हालांकि नेता और मंत्री अब भी
पूरी तरह से संभलने को तैयार नहीं दिख रहे। इसीलिए कभी कैग को गाली दी जाती
है और कभी चुनाव आयोग पर हमले होते हैं। लेकिन जनता सब देख रही है।
राजनीतिक पार्टियों को समझना पड़ेगा। ऐसे में, बेहतर हो कि राजनीतिक लोग
बदलें, सरकार भी बदले, वरना देश उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगा।
यह क्रांति अब रुकने वाली नहीं है।