दिल्ली
के वीआईपी इलाके में अरविंद केजरीवाल के धरना आंदोलन में रविवार को अन्ना
मौजूद नहीं थे लेकिन उनकी गैरहाजिरी में भी आंदोलन की धार कहीं से कमजोर
नहीं दिखी। सरकार के खिलाफ पहले भी विपक्ष का धरना प्रदर्शन होता रहा है
लेकिन उनका प्रदर्शन आमतौर पर कभी भी संसद मार्ग से आगे नहीं बढ़ पाया था।
ये पहला मौका था कि जब ऐलानिया तौर पर सोनिया, मनमोहन और गडकरी के घरों को
एक साथ धेरा गया और प्रदर्शकारियों को रोकने में पुलिस लाचार रही। अन्ना ने
भी केजरीवाल के आंदोलन को सही ठहराया है।
रविवार का आंदोलन पूरी तरह से केजरीवाल का आंदोलन था और इसे एक मजबूत भावी
पार्टी के आगाज के तौर पर भी देखा जा सकता है। अब ये तय माना जा रहा है कि
आने वाले दिन में अरविंद केजरीवाल की भूमिका अपनी राजनीतिक पार्टी में
अन्ना से अलग होगी। यानी राजनीतिक पार्टी के नेता होंगे केजरीवाल और समूचे
आंदोलन के अभिभावक होंगे अन्ना।
जानकारों
का कहना है कि अरविंद केजरीवाल ने साबित कर दिया है कि अच्छा रणनीतिकार
होने के साथ साथ उनमें नेतृत्व की क्षमता भी है। अरविंद अपनी पार्टी बना कर
अगले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं और उनकी अगुआई
में जिस तरह लोग अब गोलबंद हो रहे हैं वो निश्चिततौर पर सरकार के
साथ-विपक्ष के लिए भी चिंता की बात हो सकती है क्योंकि भ्रष्टाचार एक ऐसा
मुद्दा है, जिसके काले दाग से शायद ही कोई पार्टी बची हो।
लेकिन
कई ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब अब भी जनता जानना चाहती है। मसलन घेराव खत्म
हो गया है, अब आने वाले दिनों में क्या करेंगे केजरीवाल? सोमवार को संसद
फिर ठप हो सकती है, अनिश्चितकाल के लिए स्थगित भी हो सकती है, फिर अपने
मुद्दे कैसे जिंदा रखेंगे केजरीवाल? सबसे महत्वपूर्ण कि केजरीवाल ऐसा क्या
करेंगे कि जनता को लगे कि वो राजनीतिक परिभाषा को ही बदल दें।
एक
सवाल अन्ना के सहयोगियों में मतभेद को लेकर भी है। किरण बेदी ने धरने में
हिस्सा नहीं लिया। तो क्या ये बिखराव वाले दिनों में आंदोलन को कमजोर नहीं
करेगा?
No comments:
Post a Comment