क्या आपको पता है कि 'मर्दानगी' के सबसे ज्यादा शिकार खुद मर्द ही होते हैं? आइए समझते हैं...
'मर्द' या 'मर्दानगी' शब्द सुनते ही सबसे पहला शब्द आपके दिमाग में क्या आता है? पिछले दिनों दिल्ली में सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (CHSJ) की वर्कशॉप हुई जिसमें एक एक्टिविटी के दौरान प्रतिभागियों से यही सवाल पूछा गया. इसके बाद जो शब्द सामने आए वे इस प्रकार थे- ताकतवर, बुद्धिमान, रक्षक, मूंछों वाला, कमाने वाला, कंट्रोलर, रौबदार, जोशीला, टॉल, हैंडसम, कड़क आवाज आदि.
ये सिर्फ शब्द नहीं बल्कि मर्द को लेकर हिंदुस्तानी समाज का नजरिया है कि मर्द ऐसे होते हैं या मर्दों को ऐसा ही होना चाहिए. वर्कशॉप में इन शब्दों के जरिए समाज के नजरिये को समझने की कोशिश की गई.
CHSJ के रिसोर्स पर्सन सतीश सिंह ने गहराई से समझाया कि भारतीय समाज में कैसे एक पुरुष की मर्दानगी को उसकी सेक्सुअल पॉवर से जोड़कर देखा जाता है. सोशल प्रेशर कुछ ऐसा है कि उसके गे होने, सेक्सुअली बेहतर परफॉर्म नहीं कर पाने या पिता नहीं बन पाने पर सीधे उसे नपुंसक या इस तरह के शब्दों से नवाजा जाता है. इस वजह से एक पुरुष इस बात को लेकर हमेशा कॉन्शियस रहता है और अपनी सेक्सुअलिटी पर किसी भी तरह का सवाल वह बर्दाश्त नहीं कर पाता. सिंह ने लगातार कोशिशों के बाद भी पिता नहीं बन पा रहे अपने मित्र का उदाहरण देते हुए बताया कि जब उनसे पत्नी के साथ-साथ अपना टेस्ट कराने की सलाह दी गई तो कैसे वह आपे से बाहर हो गया.
वर्कशॉप में 'लड़के रोते नहीं हैं', 'कमाएगा नहीं तो परिवार को क्या खिलाएगा', 'इसका तो अपने-बीबी बच्चों पर ही कंट्रोल नहीं है', 'मर्द को दर्द नहीं होता', 'असली मर्द डरता नहीं है' जैसे शब्दों का भी जिक्र आया जिन्हें सुनते और सीखते हुए हमारे देश के ज्यादातर लड़के बड़े होते हैं. सतीश सिंह ने बताया कि इन वाक्यों के जरिए कैसे एक खास तरह के मर्द (समाज के नजरिये के अनुकूल) बनाने की कोशिश की जाती है और जब एक पुरुष इस नजरिये के अनुकूल नहीं बन पाता तो उसे कई तरह के नाम दे दिए जाते हैं.
मस्कुलिनिटी यानी मर्दानगी को समझाते हुए CHSJ के दूसरे रिसोर्स पर्सन और पत्रकार नासिरुद्दीन ने बताया कि हमारे समाज में लड़कों की परवरिश ऐसी होती है कि न उन्हें न सुनना सिखाया जाता है और न ही उन्हें फेल होने के लिए तैयार किया जाता है. उन्होंने बताया कि फिल्मों के जरिए कैसे पुरुषों की इस धारणा को बल मिलता है. उन्होंने पिछले दिनों रोहतक में हुए गैंगरेप और मर्डर मामले का उदाहरण भी दिया कि न नहीं सुन पाने की प्रवृत्ति एक पुरुष पर कितनी हावी होती है.
क्या होते हैं नुकसान?
वर्कशॉप के दौरान सिंह और नसीरुद्दीन ने आगे समझाया कि कैसे इस तरह के नजरिये के साथ बड़े हुए मर्दों पर हमेशा अपनी मर्दानगी साबित करते रहने का प्रेशर रहता है. वे हमेशा समाज द्वारा तय की गई 'मर्द की परिभाषा' में फिट बैठने की कोशिश में रहते हैं. इस परिभाषा में फिट बैठने का दबाव इतना है कि कई बार इसमें फेल होने पर पुरुष आत्महत्या जैसा एक्स्ट्रीम कदम भी उठा लेते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार साल 2015 में भारत में 133,623 लोगों ने आत्महत्या की थी, इनमें से 68 प्रतिशत यानी 91,528 पुरुष थे.
उन्होंने आगे बताया कि ज्यादातर पुरुष पारिवारिक कारणों, कर्ज, बेरोजगारी आदी की वजह से सुसाइड करते हैं. इसका कारण है कि लड़कों पर शुरू से नौकरी करने और पैसे कमाने का दबाव होता है. एक पढ़ी लिखी लड़की घर पर बैठे तो चलता है, कहा जाता है कि मां का हाथ बंटाती है. पर एक लड़का चाहे पढ़ा-लिखा हो या न हो, वह घर के काम में चाहे जितना हाथ बंटा ले, उसका घर पर बैठना उचित नहीं माना जाता.
सतीश सिंह ने एक केस डिस्कस किया जिसमें बिहार के व्यक्ति ने अपने तीन बच्चों और पत्नी की हत्या के बाद फांसी लगा ली थी. कारण था कि उसकी बेटी ने प्रेमविवाह कर लिया था. उन्होंने समझाया कि बेटी के घर छोड़ने के बाद उसे लगने लगा कि उसका अपने परिवार पर कंट्रोल नहीं है, लोग क्या कहेंगे.
वर्कशॉप में इस बात पर चर्चा हुई कि इस कथित मर्दानगी के शिकार आम लोग ही नहीं सेलिब्रिटीज भी होते हैं. उन्हें भी इसके तनाव और बुरे प्रभावों से गुजरना पड़ता है.
उदाहरण के लिए करण जौहर के बर्ताव और बात व्यवहार का तरीका मर्दानगी की कथित परिभाषा के अनुकूल नहीं माना जाता. उनकी सेक्सुअलिटी को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं और इस वजह से अक्सर उन्हें ट्रोल भी किया जाता है. ट्रोलर्स उन्हें नपुंसक कहने से भी गुरेज नहीं करते.
'मर्द' या 'मर्दानगी' शब्द सुनते ही सबसे पहला शब्द आपके दिमाग में क्या आता है? पिछले दिनों दिल्ली में सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (CHSJ) की वर्कशॉप हुई जिसमें एक एक्टिविटी के दौरान प्रतिभागियों से यही सवाल पूछा गया. इसके बाद जो शब्द सामने आए वे इस प्रकार थे- ताकतवर, बुद्धिमान, रक्षक, मूंछों वाला, कमाने वाला, कंट्रोलर, रौबदार, जोशीला, टॉल, हैंडसम, कड़क आवाज आदि.
ये सिर्फ शब्द नहीं बल्कि मर्द को लेकर हिंदुस्तानी समाज का नजरिया है कि मर्द ऐसे होते हैं या मर्दों को ऐसा ही होना चाहिए. वर्कशॉप में इन शब्दों के जरिए समाज के नजरिये को समझने की कोशिश की गई.
CHSJ के रिसोर्स पर्सन सतीश सिंह ने गहराई से समझाया कि भारतीय समाज में कैसे एक पुरुष की मर्दानगी को उसकी सेक्सुअल पॉवर से जोड़कर देखा जाता है. सोशल प्रेशर कुछ ऐसा है कि उसके गे होने, सेक्सुअली बेहतर परफॉर्म नहीं कर पाने या पिता नहीं बन पाने पर सीधे उसे नपुंसक या इस तरह के शब्दों से नवाजा जाता है. इस वजह से एक पुरुष इस बात को लेकर हमेशा कॉन्शियस रहता है और अपनी सेक्सुअलिटी पर किसी भी तरह का सवाल वह बर्दाश्त नहीं कर पाता. सिंह ने लगातार कोशिशों के बाद भी पिता नहीं बन पा रहे अपने मित्र का उदाहरण देते हुए बताया कि जब उनसे पत्नी के साथ-साथ अपना टेस्ट कराने की सलाह दी गई तो कैसे वह आपे से बाहर हो गया.
वर्कशॉप में 'लड़के रोते नहीं हैं', 'कमाएगा नहीं तो परिवार को क्या खिलाएगा', 'इसका तो अपने-बीबी बच्चों पर ही कंट्रोल नहीं है', 'मर्द को दर्द नहीं होता', 'असली मर्द डरता नहीं है' जैसे शब्दों का भी जिक्र आया जिन्हें सुनते और सीखते हुए हमारे देश के ज्यादातर लड़के बड़े होते हैं. सतीश सिंह ने बताया कि इन वाक्यों के जरिए कैसे एक खास तरह के मर्द (समाज के नजरिये के अनुकूल) बनाने की कोशिश की जाती है और जब एक पुरुष इस नजरिये के अनुकूल नहीं बन पाता तो उसे कई तरह के नाम दे दिए जाते हैं.
मस्कुलिनिटी यानी मर्दानगी को समझाते हुए CHSJ के दूसरे रिसोर्स पर्सन और पत्रकार नासिरुद्दीन ने बताया कि हमारे समाज में लड़कों की परवरिश ऐसी होती है कि न उन्हें न सुनना सिखाया जाता है और न ही उन्हें फेल होने के लिए तैयार किया जाता है. उन्होंने बताया कि फिल्मों के जरिए कैसे पुरुषों की इस धारणा को बल मिलता है. उन्होंने पिछले दिनों रोहतक में हुए गैंगरेप और मर्डर मामले का उदाहरण भी दिया कि न नहीं सुन पाने की प्रवृत्ति एक पुरुष पर कितनी हावी होती है.
क्या होते हैं नुकसान?
वर्कशॉप के दौरान सिंह और नसीरुद्दीन ने आगे समझाया कि कैसे इस तरह के नजरिये के साथ बड़े हुए मर्दों पर हमेशा अपनी मर्दानगी साबित करते रहने का प्रेशर रहता है. वे हमेशा समाज द्वारा तय की गई 'मर्द की परिभाषा' में फिट बैठने की कोशिश में रहते हैं. इस परिभाषा में फिट बैठने का दबाव इतना है कि कई बार इसमें फेल होने पर पुरुष आत्महत्या जैसा एक्स्ट्रीम कदम भी उठा लेते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार साल 2015 में भारत में 133,623 लोगों ने आत्महत्या की थी, इनमें से 68 प्रतिशत यानी 91,528 पुरुष थे.
उन्होंने आगे बताया कि ज्यादातर पुरुष पारिवारिक कारणों, कर्ज, बेरोजगारी आदी की वजह से सुसाइड करते हैं. इसका कारण है कि लड़कों पर शुरू से नौकरी करने और पैसे कमाने का दबाव होता है. एक पढ़ी लिखी लड़की घर पर बैठे तो चलता है, कहा जाता है कि मां का हाथ बंटाती है. पर एक लड़का चाहे पढ़ा-लिखा हो या न हो, वह घर के काम में चाहे जितना हाथ बंटा ले, उसका घर पर बैठना उचित नहीं माना जाता.
सतीश सिंह ने एक केस डिस्कस किया जिसमें बिहार के व्यक्ति ने अपने तीन बच्चों और पत्नी की हत्या के बाद फांसी लगा ली थी. कारण था कि उसकी बेटी ने प्रेमविवाह कर लिया था. उन्होंने समझाया कि बेटी के घर छोड़ने के बाद उसे लगने लगा कि उसका अपने परिवार पर कंट्रोल नहीं है, लोग क्या कहेंगे.
वर्कशॉप में इस बात पर चर्चा हुई कि इस कथित मर्दानगी के शिकार आम लोग ही नहीं सेलिब्रिटीज भी होते हैं. उन्हें भी इसके तनाव और बुरे प्रभावों से गुजरना पड़ता है.
उदाहरण के लिए करण जौहर के बर्ताव और बात व्यवहार का तरीका मर्दानगी की कथित परिभाषा के अनुकूल नहीं माना जाता. उनकी सेक्सुअलिटी को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं और इस वजह से अक्सर उन्हें ट्रोल भी किया जाता है. ट्रोलर्स उन्हें नपुंसक कहने से भी गुरेज नहीं करते.
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