महाराष्ट्र के कम से कम सात ज़िलों के
किसान सड़कों पर उतर आए हैं. गुरुवार सुबह से इन किसानों ने कृषि से जुड़े
उत्पादों को लेकर जा रही गाड़ियों का चक्का जाम कर दिया है.
इन
गाड़ियों के साथ तोड़-फोड़ करने की भी ख़बर है. इस आंदोलन को कई किसान
संगठनों का समर्थन हासिल है. किसानों की मांग है कि उनके उत्पादों की अच्छी
कीमत मिले और उनके क़र्ज़ माफ़ किए जाएं. सब्ज़ियां, फल, दूध, पोल्ट्री से जुड़े उत्पाद और मांस लेकर मुंबई, पुणे, नाशिक और औरंगाबाद जा रही गाड़ियों को किसानों के ग़ुस्से का सामना करना पड़ रहा है.
नाशिक से मुंबई और ठाणे में ज़रूरी चीज़ों की सप्लाई व्यापक पैमाने पर होती है. पर यहां के किसान भी 800 किलोमीटर से ज़्यादा लंबे मुंबई-नागपुर समृद्धि कॉरिडोर के लिए खेती की ज़मीन अधिग्रहण किए जाने का विरोध कर रहे हैं.
इस आंदोलन में अहमदनगर, नाशिक, कोल्हापुर, सांगली, सोलापुर, नांदेड़ और जलगांव के किसान शामिल हैं. इन्हीं ज़िलों से पश्चिमी महाराष्ट्र, मुंबई, मराठवाड़ा और उत्तरी महाराष्ट्र में सब्ज़ी, फल, दूध, पोल्ट्री से जुड़े उत्पाद और मांस की आपूर्ति होती है.
अगर यह आंदोलन लंबा खिंचता है तो ज़ाहिर है समस्या गंभीर रूप लेगी और इसकी धमक दिल्ली तक सुनाई दे सकती है.
महाराष्ट्र के वरिष्ठ पत्रकार समर खड़स का कहना है कि इस आंदोलन का राजनीतिक असर दो-तीन दिनों में तो दिखाई नहीं देगा लेकिन मुंबई जैसा शहर प्रभावित होता है तो इसकी गूंज दिल्ली में सुनाई ज़रूर देगी.
उन्होंने कहा, ''मुंबई एक अंतरराष्ट्रीय बिज़नेस हब है. राज्य और केंद्र दोनों में बीजेपी की सरकार है. ऐसे में यह आंदोलन लंबा खिंचता है तो इसकी आवाज़ दिल्ली तक जाएगी.''
महाराष्ट्र से दिल्ली पर दबाव बन सकता है लेकिन यह उस बात पर निर्भर करेगा कि आंदोलन कितने दिनों तक चलता है. अगर आंदोलन 15 से 20 दिनों तक खिंच जाता है तो कई राजनीतिक परिस्थितियां तैयार हो सकती हैं.
आख़िर किसान ग़ुस्से में क्यों हैं?
मॉनसून अच्छा रहता है तो फसल अच्छी होती है. पर फसल अच्छी हुई तो कीमत भी अच्छी मिलनी चाहिए, लेकिन किसानों को कीमत अच्छी नहीं मिलती. अरहर और सोयाबीन के मामले में किसानों को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा है. सब्ज़ियों के मामले में तो किसान बुरी तरह से परेशान हो गए. उनके लिए सब्ज़ियों को निकालना भी मुश्किल हो गया. टमाटर तो कौड़ियों के भाव बिका है.आज भी महाराष्ट्र प्याज उत्पादन के मामले में सबसे अव्वल है. जिस नाशिक ज़िले में सबसे ज़्यादा प्याज पैदा होता है वहां प्याज़ चार रुपए किलो बिक रहा है. ऐसी स्थिति से किसान नाराज़ हैं.
प्याज़ की कीमत बढ़ती है तो मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला मीडिया शोर मचाता है. वहीं किसान जब दो रुपए और तीन रुपए किलो प्याज बेचता है तो कोई आवाज़ नहीं उठती.
यह कई महीनों, दिनों और सालों का ग़ुस्सा है जो आंदोलन का रूप ले रहा है. उन्होंने कहा कि यह स्वतंत्र भारत का पहला मौक़ा है जब किसान हड़ताल पर गया है.
यह बीजेपी के लिए अच्छी स्थिति नहीं है. बीजेपी की सरकार में किसान हड़ताल पर जा रहे हैं और यह पहला मौक़ा है. यह बीजेपी के लिए दुर्भाग्य की बात है.
यहां के किसान स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग कर रहे हैं. उसमें कहा गया है कि किसानों की जितनी लागत लगती है उससे 50 फ़ीसदी ज़्यादा मिलनी चाहिए. इसके साथ ही किसान क़र्ज़ माफ़ी की मांग कर रहे हैं. अगर सरकार इन मांगों को मान लेती है तो किसान आंदोलन से पीछे हट जाएंगे.
सरकार अपने ही किसानों की उपेक्षा कर रही है. उन्होंने कहा कि किसानों को चीनी की अच्छी कीमत मिल सकती थी लेकिन विदेश से चीनी आयात कर लिया गया. ज़ाहिर है ऐसी स्थिति में चीनी की क़ीमत कम होगी है इसका सीधा असर किसानों पर पड़ेगा.
सरकार को या तो मुक्त बाज़ार की स्थिति को स्वीकार करना चाहिए या नियंत्रित बाज़ार के रास्ते पर चलना चाहिए.
यह डांवाडोल की स्थिति ठीक नहीं है. इस सरकार की कृषि अर्थशास्त्र की समझ बड़ी ओछी है.
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