क्या ऐसा शख़्स, जिसने अंग्रेज़ सरकार के पास माफ़ीनामे भेजे, जिन्ना से पहले धर्म के आधार पर राष्ट्र बांटने की बात कही, भारत छोड़ो आंदोलन के समय ब्रिटिश सेना में हिंदू युवाओं की भर्ती का अभियान चलाया, भारतीयों के दमन में अंग्रेज़ों का साथ दिया और देश की आज़ादी के अगुआ महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश का सूत्रसंचालन किया, वह किसी भी मायने में भारत रत्न का हक़दार होना चाहिए?
वक्त की निहाई अक्सर बड़ी बेरहम मालूम पड़ती है. अपने-अपने वक्त के शहंशाह, अपने-अपने जमाने के महान रणबांकुरे या आलिम सभी को आने वालों की सख्त टीका-टिप्पणियों से रूबरू होना पड़ा है.
बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक घटनाएं- भले जिन्होंने समूचे समाज की दिशा बदलने में अहम भूमिका अदा की हो- या बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक शख्सियतें- जिन्होंने धारा के विरुद्ध खड़ा होने का साहस कर उसे मोड़ दिया हो – कोई भी कितना भी बड़ा हो उसकी निर्मम आलोचना से बच नहीं पाया है.
यह अकारण ही नहीं कहा जाता कि आने वाली पीढ़ियां पुरानी पीढ़ियों के कंधों पर सवार होती हैं. जाहिर है वे ज्यादा दूर देख सकती हैं, पुरानी पीढ़ियों द्वारा संकलित, संशोधित ज्ञान उनकी अपनी धरोहर होता है, जिसे जज्ब कर वे आगे निकल जा सकती हैं.
समाज की विकास यात्रा को वैज्ञानिक ढंग से देखने वाले शख्स के लिए हो सकता है यह बात भले ही सामान्य मालूम पड़े, लेकिन समाज के व्यापक हिस्से में जिस तरह के अवैज्ञानिक, पश्चगामी चिंतन का बोलबाला रहता है, उसमें ऐसी कोई भी बात उसे आसानी से पच नहीं पाती.
घटनाओं और शख्सियतों का आदर्शीकरण करने की, उन्हें अपने दौर और अपने स्थान से काटकर सार्वभौमिक मानने की जो प्रवृत्ति समाज में विद्यमान रहती है, उसके चलते समाज का बड़ा हिस्सा ऐसी आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं कर पाता.
वैसे बात-बात पर आस्था पर हमला होने का बहाना बनाकर सड़कों पर उतरने वाली हुड़दंगी बजरंगी मानसिकता भले ही ऐसी प्रकट समीक्षा को रोकने की कोशिश करे, लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि कहीं प्रकट- तो कहीं प्रच्छन्न रूप से यह आलोचना निरंतर चलती ही रहती है और उन्हीं में नये विचारों के वाहक अंकुरित होते रहते हैं, जो फिर समाज को नये पथ पर ले जाते हैं.
फिलवक्त विनायक दामोदर सावरकर- जिन्हें उनके अनुयायी ‘स्वातंत्रयवीर’ नाम से पुकारते हैं, जो युवावस्था में ही ब्रिटिश विरोधी आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए थे, जो बाद में कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए, जहां वह और रैडिकल राजनीतिक गतिविधियों में जुड़ते गए थे- इसी किस्म की पड़ताल के केंद्र में है.
इसकी फौरी वजह सूबा महाराष्ट्र के चुनावों के लिए सत्ताधारी भाजपा द्वारा किया गया यह वादा है कि वह उन्हें भारत रत्न से नवाजना चाहती है. ऐसा नहीं है कि उन्हें सम्मानित करने की बात पहली दफा उठी है या उनकी उपेक्षा होने की बात की चर्चा पहली दफा चली है.
जनाब उद्धव ठाकरे, जो अपने पिता की मौत के बाद अब शिवसेना के मुखिया हैं और फिलवक्त जिनकी पार्टी भाजपा की जूनियर सहयोगी के तौर पर सक्रिय है, ने चुनावों के ऐन पहले एक किताब के विमोचन के वक्त यहां तक कहा था अगर ‘वीर सावरकर प्रधानमंत्री बने होते तो पाकिस्तान वजूद में ही नहीं आता.’
उन्होंने अपनी तकरीर में नेहरू को ‘वीर’ कहने से भी इनकार किया और यह एकांतिक किस्म का बयान दिया कि ‘सावरकर ने जिस तरह 14 साल जेल में बिताए उस तरह सिर्फ 14 मिनट ही नेहरू ने जेल में बिताए होते, तो उन्होंने नेहरू को वीर कहा होता.’
क्षेपक के तौर पर बता दें कि उन्होंने एक तरह से यह साफ किया कि यह हक़ीकत कि नेहरू ने अपनी जिंदगी के नौ साल उपनिवेशवादियों की जेल में बिताए और तमाम तकलीफों के बावजूद अपने उसूलों से समझौता नहीं किया उनके लिए कोई मायने नहीं रखती, जहां तमाम स्वयंभू वीरों ने अंग्रेजों के पास माफीनामों की झड़ी लगा दी थी.
http://thewirehindi.com/98705/vd-savarkar-bharat-ratna-indian-freedom-movement/
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